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________________ तत्त्व आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-चार प्रत्येक बुद्ध : जैन एवं बौद्ध-परम्परा में ६८९ दासी अपनी उत्सुकता नहीं रोक सकी, बीच में ही बोल उठी—"मंजूषा बन्द थी। उसमें सर्वथा अन्धकार था । सूरज के उगने, छिपने का कुछ भी पता नहीं चलता था। उसमें बन्द पुरुष को यह कैसे ज्ञात हो सका कि वह और उसका साथी चार दिन से मंजूषा में बन्द नित्य की ज्यों आलस्य और परिश्रान्ति का भाव जताते हुए, आँखें मलते हुए रानी ने कहा-"अब मुझे नींद नहीं आ रही है। आगे की बात कल कहूँगी।" अगले दिन फिर कहानी का क्रम चला। राजा शय्या पर लेटा था। दासी ने गत दिन कही गई कहानी का सन्दर्भ प्रस्तुत करने हुए पूछा- "स्वामिनी ! बतलाएँ, मंजूषा में बन्द पुरुष को चौथे दिन का ज्ञान कैसे हुआ ?" कनक मंजरी ने सस्मित उत्तर दिया-“वह पुरुष तुरीय ज्वर- चौथे दिन आने विषम ज्वर का मरीज था। उस दिन उसे ज्वर चढ़ा, जिससे उसे पता चल गयामंजषा में उसे और उसके साथी को बन्द हुए आज चौथा दिन है। रानी और दासी दोनों खिल-खिलाकर हंस पड़ीं। नींद का बहाना किये, सोये राजा को भीतर ही भीतर हंसी आ गई। दासी ने रानी को फिर दूसरी कहानी कहने का अनुरोध किया। ऊँट और बबूल कनक मंजरी कहने लगी-"मरुस्थल की बात है। एक ऊँट-सवार था । वह एक वन को पार कर रहा था। चलते-चलते विश्राम हेतु वन में रुका। ऊँट को चरने के लिए खुला छोड़ दिया । ऊँट चरता-चरता एक ऐसे स्थान पर पहुँच गया, जहाँ से उसकी दृष्टि एक बबूल के पेड़ पर पड़ी। बबूल खूब हरा-भरा था। उसकी पत्तियाँ खाने को ऊँट का जी ललचाया। उसने अपनी गर्दन सीधी की। बबूल पर मुंह मारने का बड़ा प्रयत्न किया, किन्तु, उसकी गर्दन बबूल की पत्तियों तक नहीं पहुंची। इस पर ऊँट को बड़ा गुस्सा आया। उसने गुस्से के मारे बबूल पर मूत्र कर दिया और वह वहां से चला गया।" दासी ने झट पूछा-"महारानी! यह कैसे हो सका? ऊँट की गर्दन सीधी करने पर भी जब बबूल तक नहीं पहुंच सकी, तो वह उस पर मूत्र कैसे कर सका ?" कनक मंजरी ने उबासी लेते हुए कहा-"बस, आज इतना ही, मैं बहुत परिश्रान्त हो गई हैं, आँखों में नींद घुल रही है। इस समय और कुछ भी नहीं बता सकती, कल बताऊँगी।" दूसरे दिन रात्रि को पूर्ववत् कथा-प्रसंग चला । दासी ने फिर वही बात पूछी"ऊँट के लिए बबूल पर मूत्र करना कैसे संभव हो सका ?" रानी बोली-“वहाँ एक कच्चा, संकडा कुआं था । बबूल उसमें नीचे बहुत गहराई में अवस्थित था । ऊँट कुएँ के ऊपर खड़ा हुआ और उस पर मूत्र कर दिया।" यह सुनकर दासी खिल खिलाकर हंस पड़ी तथा बोली- स्वामिनी ! अब कोई और कहानी सुनाओ।" कनक मंजरी ने कृत्रिम अँझलाहट प्रदर्शित करते हुए कहा-"रोज ही रोज क्या कहानी सुनाऊं? क्या तुम बच्ची हो? सिर्फ आज एक कहानी सुना देती हूँ, फिर नहीं सुनाऊँगी।" Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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