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६८८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : ३ यह सुनते ही दासी बोली-"स्वामिनी ! क्या कह रही हो ? रत्नों की जगमगाती ज्योति से जब रात्रि दिवस का पता ही नहीं चलता था, तो उस स्वर्णकार को कैसे ज्ञात हआ कि सायंकाल हो गया। रत्नों का प्रकाश तो हर समय एक-सा रहता था।"
रानी कनक मंजरी ने थकान का बहाना बनाते हुए कहा-"आज इतना ही नींद से मेरी आँखें भारी हो रही हैं। तुम्हारे प्रश्न का उत्तर कल बतलाऊंगी।"
राजा चाहता था, इसका उत्तर सुने । उसका जी कसमसा रहा था, रानी बात को ऐसे मोड़ पर लाकर छोड़ देती है कि उत्कण्ठा, जिज्ञासा बनी की बनी रह जाती है, पर वह क्या करता, सो गया।
रानी यह सब भाँप रही थी। उसने मन्द मुस्कान के साथ राजा की ओर निहारा तथा बोली-'देव ! परिश्रान्त तो नहीं हो गये ? कहानी कल पूर्ण करूंगी। आज रहने दें।"
राजा बोला-"नहीं प्रिये ! इतनी सरस कहानी, तुम्हारे मुख से निकले इतने मधुर शब्द, फिर परिश्रान्ति कैसी ? ऐसी मनोज्ञ, मोहक कहानियाँ सुनते-सुनते तो मैं दश दिन भी नहीं थकू।"
पर्वत वासिनी कनक माला अपने पति राजा सिंहरथ से कहती गई— “महाराज ! कनक मंजरी राजा को इतनी मधुर, प्रिय कथाएं सुनाती गईं कि राजा जितशत्रु उनमें उसी प्रकार बँधा रहा, जैसे धीवर के जाल में मत्स्य बँध जाता है।"
राजा सिंहरथ बोला- "सुन्दरी ! कथाएँ इतनी रोचक, आकर्षक और मनोहर हैं कि मेरा भी जी चाहता है, उन्हें सुनता जाऊँ।"
कनकमाला बोली --- ''बहुत अच्छा, महाराज ! सुनिए आगे सुनाती हूँ।"
तीसरे दिन रात्रि के समय राजा जितशत्रु नित्य की ज्यों महल में आ गया। बिछौने पर लेट गया। दासी आई, रानी से बोली-"महारानी ! कल की बाकी रही बात कहो, उस स्वर्णकार को सन्ध्या हो जाने का कैसे पता चला?"
रानी बोली--' वह रात्र्यन्ध था--उसे रतौंवी की बीमारी थी। इसलिए वह केवल दिन में ही देख सकने में समर्थ था। रात्रि में किसी भी प्रकार का प्रकाश उसके लिए निरर्थक था। वह रात में कुछ भी नहीं देख सकता था। अतएव ज्योंही मायकाल हुआ, उसे दीखना बन्द हो गया, जिससे उसने जान लिया कि अब सन्ध्या हो गई है।"
राजा मन-ही-मन प्रसन्नता से मुस्करा उठा। चौथिया बुखार
दासी ने रानी से कोई और नई कहानी सुनाने का अनुरोध किया।
रानी कहने लगी- एक राजा था। नगर में चोरी हुई। दो चोर पकड़े गये। आरक्षि पुरुष उन्हें राजा के पास लाये। राजा ने आदेश दिया—'इन्हें एक काष्ठ-मंजूषा में बन्द करा दो और समुद्र में बहा दो।'
राजपुरुषों ने वैसा ही किया। मंजूषा सागर की उत्ताल तरंगों पर बहने लगी। बहतीबहती कुछ दिन में तट पर पहुंची। तट पर एक पुरुष खड़ा था । उसने मंजूषा को उठाया। उसे खोला। उसमें उसे दो पुरुष बैठे मिले। खोलने वाला बड़ा विस्मित हुआ। उसने पूछा- "तुम दोनों कितने दिन से इस मंजूषा में बन्द हो?"
उनमें से एक ने उत्तर दिया-'आज चौथा दिन है।"
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