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________________ तत्त्व:आचार : कथानुयोग] कथानुयोग- -चार प्रत्येक बुद्ध : जैन एवं बौद्ध परम्परा में ६८७ प्राप्त करूँ । यों सोचकर वह देवाराधना में, तपश्चरण में लग गया। देव प्रसन्न हुआ । उसे संजीवनी दी । वह हर्ष से नाच उठा । तत्क्षण उस श्मशान में पहुँचा, जहाँ कन्या का दाह हुआ था । चिता स्थान पर संजीवनी - रस का छींटा दिया । वह कन्या अपना अनुपम सौन्दर्य लिए जीवित हो उठी। साथ ही साथ वह पुरुष भी जीवित हो गया, जो उसके साथ चिता में जल गया था। दूसरा पुरुष भी वहाँ आ पहुँचा, जो कन्या के प्रेम में पागल होकर अवधूत बन गया था । कन्या एक थी, पुरुष तीन थे। तीनों में से प्रत्येक की यह उत्कट कामना थी, कन्या पाणिग्रहण उसके साथ हो । तीनों में पुन: भीषण संघर्ष मच गया । रानी कनकमंजरी ने इतना कहा, फिर वह रुक गई । दासी बड़ी उत्कण्ठा के साथ पूछने लगी- "स्वामिनी ! बतलाएँ, कन्या का वास्तविक अधिकारी किसको माना जाए ?” कनकमंजरी अपनी आँखें मलने लगी, कहने लगी- "परिश्रान्त हो गई हूं, बड़ी नींद आ रही है। अब आगे नहीं कह सकती। कल कहूँगी।" राजा बिछौने पर लेटे लेटे, आँखें मूंदे सब सुन रहा था। वह आगे की बात सुनने को बड़ा उत्सुक था, किन्तु, बात बीच में कट गई। उसे अप्रिय लगा । हल्का-सा रोष भी हुआ । उसने करवट बदली, सो गया, नींद आ गई । राजा को कथा का उत्तर भाग, जो फल निष्पत्ति लिए था, सुनने की बड़ी उत्कण्ठा थी। दूसरे दिन रात होते ही वह कनकमंजरी के महल में आ गया। पिछले दिन की ज्यों सोने का बहाना किया। दासी ने रानी से कहा - "स्वामिनी ! कल जो कहानी अधूरी छोड़ी थी, उसे पूर्ण करें । बतलाएं, वह कन्या किसे प्राप्त होनी चाहिए ?" राजा बिछौने पर सोया था । करवटें बदल रहा था, किन्तु उसने रानी की ओर कान लगा रखा था । कनक मंजरी ने कहा - "देखो, बहुत स्पष्ट है, जिसने देवाराधना कर संजीवनी प्राप्त की, कन्या को जीवन-दान दिया, वह उसका पितृस्थानीय हुआ । जो चिता में जलकर संजीवनी का छींटा लगने पर उस कन्या के साथ जी उठा, सहजात होने के नाते वह उसका भाई हुआ । तुम ही सोचो, क्या किसी कन्या का अपने पिता या भाई के साथ विवाह हो सकता है ? कन्या का वास्तविक अधिकारी वह है, जो उसके प्रेम में पागल हो, अवधूत बनकर दर-दर की खाक छानता भटकता फिरा । कन्या उसे ही पत्नी के रूप में प्राप्त होनी चाहिए ।' दासी बोली - "स्वामिनी ! यह कहानी तो पूरी हो गई, रात काटने के लिए अब दूसरी सुनाओ ।" रतौंधी का रोगी कनक मंजरी ने दूसरी कहानी इस प्रकार प्रारम्भ की — “एक राजा था। उसने अपनी रानी के लिए अत्यन्त सुन्दर, मनोज्ञ आभूषण बनवाने चाहे । कुशल स्वर्णकारों को बुलाया । उन्हें आभूषण बनाने हेतु एक भूगर्भगृह में रखा। वहां सूरज की किरणें बिलकुल नहीं पहुँचती थीं । बहुमूल्य मणियाँ निक्षिप्त थीं । उनके दिव्य प्रकाश से भूगर्भगृह निरन्तर आलोकमय रहता था । दिन-रात का मालूम ही नहीं पड़ता था । स्वर्णकार वहाँ स्थित हो आभूषण बनाने लगे । सायंकाल हुआ। एक स्वर्णकार ने अपने साथियों से कहा - सध्या का समय हो गया है । अपना कार्य बंद कर दें, विश्राम करें। " Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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