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तत्त्वःआचार : कथानुयोग] कथानुयोग-चार प्रत्येक बुद्ध : जैन एवं बौद्ध-परम्परा में ६८३
विद्याधर-कन्या से भेंट : परिणय
राजा बहुत परिश्रान्त था। देह से पसीना चू रहा था। वह भूख एवं प्यास से व्याकुल था। घोड़े से नीचे उतरा। उसे एक पेड़ से बांध दिया । राजा ने जल की खोज में इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई । उसे पास ही एक झरना बहता दिखाई दिया। वह वहाँ आया। जल पीया। वहाँ कुछ फलाच्छन्न वृक्ष थे। उसने फल तोड़े, खाये, अपनी क्षुधा शान्त की।
पास ही एक पर्वत था । सायंकाल हो चुका था । राजा विश्राम हेतु उपयुक्त स्थान की खोज में पर्वत पर चढ़ा। वहाँ एक भव्य भवन दृष्टिगोचर हुआ । एकान्त वन में पर्वत पर महल देखकर राजा आश्चर्यान्वित हुआ। वह कुतूहल वश प्रासाद में प्रविष्ट हुआ। वहाँ एक अत्यन्त रूपवती कन्या बैठी थी। राजा की उस पर दृष्टि पड़ी । वह हर्षित हुआ। कन्या ने भी राजा को देखा । दोनों एक-दूसरे की ओर आकृष्ट हुए। दोनों में परस्पर अनुराग हो गया।
राजा ने उस कन्या से पूछा-"भद्रे ! तुम कौन हो ? मैं तुम्हारा परिचय जानना चाहता हूँ।"
कन्या बोली-"पहले मेरे साथ परिणय-सूत्र में आबद्ध हो जाओ, फिर मैं सब बतलाऊँगी। राजन् ! मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में थी।"
राजा कुछ समझ नहीं सका, किन्तु, कन्या की सौम्यता एवं सहृदयता को देखकर उसने उसका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। पाणिग्रहण हो गया। रात्रि व्यतीत हुई । प्रात:काल हुआ।
चित्रशाला का निर्माण
कन्या ने राजा को अपना वृत्तान्त इस प्रकार सुनाना प्रारंभ किया-पुरावर्ती इतिवृत्त है, क्षितिप्रतिष्ठ नामक नगर था। वहाँ जितशत्रु नामक राजा राज्य करता था। राजा कलानुरागी था। एक बार उसके मन में विचार उठा, एक ऐसी चित्रशाला का निर्माण कराऊँ, जो अद्भुत हो, अद्वितीय हो । उसने देशदेशान्तर से कुशल चित्रकार बुलाये। उनमें एक वृद्ध चित्रकार भी था। उसका नाम चित्रांगद था। यद्यपि वृद्धावस्था ने उसे जर्जर कर डाला था, किन्तु, उसकी कला में मानो जादू था । तूलिका-चालन में उसे अद्भुत कौशल प्राप्त था। राजा ने चित्र बनाने हेतु उन चित्रकारों को अलग-अलग एक समान स्थान दिये। चित्रकार चित्र-निर्माण में संलग्न हो गये।
"वृद्ध चित्रकार के एक कन्या थी। वह बहुत सुन्दर थी, युवती थी। उसका नाम कनकमंजरी था। वह अपने पिता की सेवा करती थी। पिता चित्रशाला में कार्यरत रहता। वह उसके लिए अपने आवास-स्थान से भोजन बनाकर लाती, उसे खिलाती।
लापरवाह अश्वारोही
एक दिन की बात है, कनकमंजरी भोजन लिए अपने घर से आ रही थी। मार्ग में एक अश्वारोही अपने अश्व को वायु-वेग से दौड़ता हुआ जा रहा था। अश्व को अत्यन्त तेज दौड़ते देख रास्ते चलती महिलाएँ, बालक भय से ठिठक गये। घोड़े की टापों से अपने को बचाने हेतु वे दूर हटकर खड़े हो गये । वह कन्या घोड़े की चपेट में आ जाने के भय से घबरा गई। उसने भी मार्ग छोड़ दिया, एक दीवार के सहारे खड़ी हो गई। नागरिकों के
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