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तत्त्वःआचार : कथानुयोग ) कथानुयोग-चार प्रत्येक बुद्ध : जैन एवं बौद्ध-परम्परा में ६७७
स्थिति यह है कि दिगम्बर परम्परा में श्वेताम्बर परम्परा की तरह चार प्रत्येक बुद्धों की मान्यता ही प्रतीत नहीं होती, 'कणयामर' मुनि रचित 'करकण्डु चरिअ' दिगम्बर परम्परा का मुख्य और मान्य ग्रंथ है। कणयामार मुनि के लिए दशवीं शताब्दी के कवि होने की संभावना व्यक्त की जाती है । कणयामर मुनि ने करकण्डु का पार्श्व प्रतिमा से साक्षात्कार होना लिखा है। पार्श्व से साक्षात्कार होने की बात कहीं नहीं कही है। इससे स्पष्ट होता है कि दिगम्बर परम्परा के अनुसार भी करकण्डु का काल पार्श्व के पश्चात् महावीर तक कभी का हो सकता है । डा० हीरालाल जैन ने भी शायद इसी आशय से करकण्ड का काल ई० पू० ८०० से ५०० तक मान लिया है । पार्श्व का निर्वाण-काल ७७७ ई० पू० का
श्वेताम्बर-परम्परा में एतद्विषयक स्थिति कुछ भिन्न है। चारों प्रत्येक बुद्धों के नाम व राज्य आदि से तो उनका काल नहीं पकड़ा जा सकता, पर, उन चारों से सम्बन्धित अन्य कतिपय पात्र उनके काल को समझाने में मदद करते हैं, जैसे करकण्डु को पद्मावती रानी और दधिवाहन राजा का पुत्र माना गया है । पद्मावती राजा चेटक की कन्या थी। दधिवाहन चन्दनबाला के पिता थे। चन्दनवाला की माता धारिणी दधिवाहन की ही एक अन्य रानी थी; अत: पद्मावती रानी व चम्पा के राजा दधिवाहन भगवान् महावीर के समसामायिक से होते हैं।
द्विमुख प्रत्येक बुद्ध की पुत्री मंजरी का विवाह उज्जयिनी के राजा चंडप्रद्योत के साथ हुआ, ऐसा माना जाता है। चंडप्रद्योत भी भगवान् महावीर के समसामयिक थे।
इस प्रकार दो प्रत्येक बुद्ध महावीर के निकटवर्ती समय में होते हैं, तो दो अन्य प्रत्येक बुद्धों का भी उसी युग में होना स्वत: सिद्ध हो जाता है; क्योंकि चारों प्रत्येक बुद्धों के जन्म, दीक्षा आदि एक ही समय में माने गये हैं।
उक्त चारों प्रत्येक बुद्धों के भगवान पार्श्व से साक्षात्कार का भी सम्मुल्लेख नहीं है । महावीर से या गौतम आदि से साक्षात्कार का भी कहीं उल्लेख नहीं है। इस स्थिति में पार्श्व और महावीर के अन्तरालवर्ती समय में ही ये हुए हैं, ऐसा संगत लगता है। महावीर के निकट का समय यहाँ तक भी हो सकता है कि महावीर के सर्वज्ञ होने तक भी ये वर्तमान रहे हों। ये महावीर के संघ में सम्मिलित हुए, ऐसा कोई प्रमाण भी नहीं मिलता और ऐसा होना कुछ अन्य प्रमाणों से बाधित भी है।।
इन्हीं चार प्रत्येक बुद्धों का वर्णन बौद्ध-परम्परा के जातक-साहित्य में भी कुछ एक रूपान्तर से मिलता है। त्रिपिटक साहित्य और आगम साहित्य के समान-प्रकरणों के विषय में यह एक निश्चित-सा तथ्य है कि पार्श्व-परम्परा में प्रचलित घटना-प्रसंग ही दोनों परम्पराओं में संग्रहीत हुए हैं। इस स्थिति में यह तो मान ही लेना पड़ता है कि प्रत्येक बुद्ध किसी काल में हुए हों, वे पार्श्व की परम्परा से ही आबद्ध रहे हों। महावीर द्वारा चतुर्विध संघ की स्थापना के बाद भी तो अनेक आगमिक स्थलों में पाश्र्वापत्यिक निग्रंथों का वर्णन आता ही है। वे अनेक निग्रंथ महावीर की परम्परा में दीक्षित होते रहे हैं । अनेक न भी होते रहे हैं।'
आवश्य नियुक्ति के अनुसार पापित्यीय स्थविर मुनिचन्द्र महावीर की विद्यमानता में पार्श्व परम्परा के अन्तर्गत ही मोक्ष प्राप्त करते हैं। उनका शिष्य समुदाय उनके बाद भी
१. विशेष विवरण के लिए देखें, आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन, खण्ड १ का
'आगमों में पार्श्व और उनकी परम्परा' प्रकरण।
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