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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : ३
स्वामी की इच्छा-पूर्ण करने का लक्ष्य लिये अविश्रान्त रूप में घूमते रहे। उसी क्रम के बीच जब वे एक नगर में पहुँचे तो वहाँ लोगों ने कहा-“मद्र देश जाओ। ऐसा रूप वहीं मिलेगा। और कहीं मत भटको।"
पयंटक-दल को एक सहारा मिला। वह चलता-चलता मद्र देश पहुँचा। पर्यटक दल के लोग स्वर्ण-प्रतिमा-जैसी कन्या की खोज में मद्रदेश में घूमने लगे।'
भद्रा कापिलायनी की बाई : परिचय
एक बार का प्रसंग है, वे ब्राह्मण घूमते-घूमते मद्रदेश के सागल नामक नगर के बाहर एक सरोवर पर टिके । स्वर्ण-प्रतिमा को एक और रखा । सागल नगर के कौशिक गोत्र ब्राह्मण की कन्या भद्रा कापिलायनी की दाई सरोवर के घाट पर नहाने आई। उसकी दृष्टि स्वर्ण-प्रतिमा पर पड़ी। उसे आश्चर्य हुआ- भद्रा कितनी विनयंशून्य है, जो यहाँ आकर खड़ी है। यह सोचकर वह पास आई और पीठ पर थप्पड मारा। तब उसे पता चला, वह तो स्वर्ण-प्रतिमा है। वह बोली-“मैंने समझा था, यह मेरी स्वामिनी है, यह तो मेरी स्वामिनी भद्रा के कपड़े लेकर चलने वाली दासी जैसी भी नहीं है।"
यह देख, सुनकर ब्राह्मणों को बड़ा कुतूहल हुआ । वे उसके पास आये, उसे घेर कर पूछने-लगे--"क्या तुम्हारी स्वामिनी ऐसे रूप की है ?"
दाई ने कहा- "मेरी स्वामिनी इस स्वर्ण-प्रतिमा से कहीं सौ गुनी, हजार गुनी, लाख गुनी रूपवती है। उसकी यह विशेषता है, बारह हाथ विस्तीर्ण घर में बैठे रहने पर भी उसकी देह-द्युति से अन्धकार मिट जाता है, दीपक की कोई आवश्यकता नहीं रहती।"
भद्रा का वाग्दान
दाई ने पर्यटक-दल के लोगों से पूछा- "स्वर्णमयी कन्या लिये उनके घूमने का क्या प्रयोजन है ?" ब्राह्मण ने सारा वृत्तान्त कहा और वे उस कब्जा के साथ भद्रा के पिता के पास आये। उसने उनका स्वागत किया। सारी बात बतलाकर उन्होंने पिप्पलीकुमार के लिए भद्रा की याचना की। पिता प्रसन्न हुआ। भद्रा सोलह वर्ष की थी, विवाह-योग्य थी। गोत्र, जाति एवं वैभव में अपने तुल्य यह सम्बन्ध उसके पिता को अच्छा लगा। उसने भद्रा से विवाह के विषय में पूछा । भद्रा ने अपने दोनों कानों में अंगुलियाँ डालकर कहा-"मैं यह नहीं सुनना चाहती। मैं विवाह नहीं करूंगी, प्रव्रज्या स्वीकार करूंगी।"
पिता के हृदय पर सहसा एक भीषण आघात लगा। उसे यह कल्पना तक नहीं थी कि उसकी फूल-सी सुकुमार बेटी कठोर ब्रह्मचर्य-वास स्वीकार किये रहने का संकल्प लिये है। उसने भद्रा को बार-बार समझाया, किन्त, भद्रा अपने संकल्प को दहराती रही कि उसे विवाह करना कदापि स्वीकार नहीं है। ऐसा होते हुए भी भद्रा के पिता ने, कन्या आगे चलकर समझ जायेगी. इस आशा से पर्यटक-दल के लोगों को भद्रा के विवाह की स्वीकृति दे दी। वाग्दान (सगाई) का दस्तूर कर दिया तथा विवाह की तिथि निश्चित कर दी।
पर्यटक-दल अपना लक्ष्य पूर्ण हुआ जान बड़ा परितुष्ट हुआ । वह मद्रदेश से प्रस्थान कर यथासमय वापस मगध पहुंचा। विप्र-दम्पति को सारा वृत्तान्त सुनाया। विप्र-दम्पति ने
१. रावी तथा चिनाब नदियों के बीच के प्रदेश की पहचान मद्रदेश से की जाती है। २. स्यालकोट
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