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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन ये ब्रह्मचर्य-व्रत के महान् आराधक हैं, अखण्ड ब्रह्मचारी हैं। विवाहित होकर भी सम्पूर्णरूपेण ब्रह्मचर्य का परिपालन करने वाले इस भरत क्षेत्र में अद्वितीय हैं। इनकी भक्ति करने का आदर करने का, इनको पारणा कराने का, भोजन कराने का उतना ही फल है, जितना चौरासी हजार मुनियों की भक्ति तथा आदर करने का और उन्हें पारणा कराने का, आहार देने का फल होता है। यह केवली भगवान् श्री विमल मुनि ने प्रकट किया है।" अभिनन्दन : पारणा ज्योंही लोगों ने सुना, विजय एवं विजया अखण्ड ब्रह्मचर्य के आराधक हैं, बालब्रह्मचारी है ; सब के सब आश्चर्य-चकित हो गये। सबका मस्तक सम्मान एवं श्रद्धा से झुक गया। सेठ जिनदास ने विजय तथा विजया को भक्ति एवं श्रद्धा-पूर्वक पारणा कराया, भोजन कराया। इस प्रकार अपना मनः-संकल्प पूर्ण किया । अपनी संकल्प-पूर्ति से उसके हर्ष का पार नहीं रहा। जन-जन द्वारा किये जाते विजय और विजया के जय-नाद से आकाश गूंज उठा। विजय-विजया श्रामण्य की ओर विजय और विजया ने परस्पर विचार किया--हम दोनों ने निश्चय किया था, जिस दिन हमारा यह रहस्य खुल जायेगा, हम संसार में- गृहस्थ में नहीं रहेंगे, श्रमण धर्म स्वीकार कर प्रव्रज्या ग्रहण कर लेगे। केवली भगवान् द्वारा यह रहस्य उद्घाटित कर दिये जाने पर आज वह स्थिति उपस्थित हो गई है। अब हमें अपने निर्णय के अनुसार वैसा ही करना चाहिए। न चाहते हुए भी जो परिस्थिति उत्पन्न हुई, उससे उन्हें इसलिए परितोष था कि इसके कारण संयम-ग्रहण करने का स्वतः प्रसंग बन सका । अन्यथा सन्दिग्ध था, वैसा अवसर प्राप्त होता या नहीं। उहोंने मन-ही-मन कहा-हमारे लिए यह बड़ा उत्तम हुआ । संयम की आराधना करेंगे, हमारा मनुष्य-भव सफल होगा। अपने जीवन के चरम लक्ष्य की पूर्ति में हम उत्तरोत्तर आगे बढ़ते जायेंगे। उज्ज्वल, निर्मल चारित्र्य की आराधना उन्होंने बड़े उच्च, उत्कृष्ट आत्म-परिणामों द्वारा संयम स्वीकार किया। वे मुनि विजय तथा साध्वी विजया के रूप में परिणत हो गये। वे उज्ज्वल, निर्मल चारित्र्य की आराधना करने लगे । कठोर तप, नियम, स्वाध्याय, ध्यान, व्युत्सर्ग आदि द्वारा आत्म-मार्जन, आत्माभ्युदय एवं आत्मोत्कर्ष के पथ पर अनवरत बढ़ते गये। अपने जीवन का सार्थक्य साधा। उत्कट ब्रह्मचर्याराधना में भारतीय इतिहास का निश्चय ही यह एक अद्भुत उदाहरण है।" १. आधार-उपदेशप्रासाद । ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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