________________
तत्त्वःआचार:कथानुयोग] कथानुयोग-विजय-विजया : पिप्पलीकुमार-भद्रा कापि० ६६७
श्रमणोपासक जिनदास के मन पर एक ठेस-सी लगी। उसने निराशा के स्वर में कहा-"प्रभो ! क्या मेरा मन:-संकल्प अपूर्ण ही रहेगा, पूरा नहीं होगा ?"
केवली बोले- “सच्चे मन से किया गया संकल्प कभी अपूर्ण नहीं रहता जिनदास !"
जिनदास ने सोचा-भगवान् जिन शब्दों में यह कह रहे हैं, उसमें आशा की झलक है, मेरे मनः-संकल्प के सफल होने का संकेत है।
जिनदास ने केवली भगवान से पुनः निवेदन किया-"प्रभो ! फिर मेरा यह मनःसंकल्प किस प्रकार पूर्ण होगा?"
संकल्प पूर्ति का रूप
मुनि विमल केवली बोले- केवल दो व्यक्तियों को भक्ति तथा आदर के साथ पारणा कराने से, भोजन कराने से तुम्हारा संकल्प पूरा हो सकेगा।"
जिनदास को आश्चर्य हुआ। उत्सुकता बढ़ी। मूक जिज्ञासा भी।
अपना आशय स्पष्ट करते हुए केवली भगवान ने कहा-“ऐसे दम्पत्ति-पति-पत्नी, जिनमें एक प्रत्येक मास के शुक्ल पक्ष में तथा एक प्रत्येक मास के कृष्ण पक्ष में ब्रह्मचर्य का पालन करें, यों सम्पूर्ण मास, सम्पूर्ण वर्ष और सम्पूर्ण जीवन-पर्यन्त ब्रह्मचर्य का पालन करें, वे चौरासी हजार मुनियों के तुल्य होते हैं । उनको पारणा कराने का, भोजन कराने का उतना ही महत्त्व है, जितना चौरासी हजार मुनियों को आहार कराने का।"
विजय-विजया का नामोद्घाटन
जिनदास सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ। किन्तु, उसे मन-ही-मन ऐसा संशय हुआ कि ऐसे पति-पत्नी उसे कहाँ मिलेंगे, जिन्हें भोजन कराकर वह अपना मन-संकल्प सार्थक कर सके। उसे कोई उपाय नहीं सूझा। तब उसने केवली भगवान् से फिर जिज्ञासा की-“ऐसे परम पवित्र ब्रह्मचर्य के परिपालक, आराधक पति-पत्नी कहाँ प्राप्त होंगे भगवन् !"
केवली ने कहा-'कच्छ देश में अर्हद्दास नामक सेठ है। उसका पुत्र विजय तथा पुत्र-वधू विजया ऐसे ही ब्रह्मचर्य व्रती दम्पत्ति हैं । गृहस्थ में रहते हुए भी वे सम्पूर्णरूपेण ब्रह्मचर्य की आराधना में निरत हैं। उनकी भक्ति एवं आदर करने से, उनको पारणा कराने से, भोजन कराने से तुम्हारा मनः-संकल्प पूरा होगा।"
सेठ जिनदास यह जानकर अत्यधिक प्रसन्न हुआ। वह अपने परिजन-वृद सहित कच्छ देश गया। वहां जाकर उसने विजय एवं विजया की चारित्रिक गरिमा तथा कठोर व्रताराधना की चर्चा करते हुए उनकी मुक्त-कण्ठ से प्रशंसा की। विजय तथा विजया की साधना तो आत्म-कल्याण के लिए थी। न उन्होंने कभी इसकी चर्चा की और न वैसा करना कभी आवश्यक या अपेक्षित ही माना; इसलिए कच्छ के लोगों ने एक दूर देशवासी सम्भ्रान्त श्रेष्ठी के मुख से उनकी ऐसी प्रशस्ति सुनी तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। विजय और विजया को बड़ा संकोच था। उन्होंने कभी नहीं चाहा, उनका शील, उग्र ब्रह्मचर्याराधन प्रचारित-प्रसारित हो।
सेठ जिनदास ने वृहत जन-समुदाय के बीच सेठ अर्हद्दास को सम्बोधित कर कहा"श्रेष्ठिकर ! आप नहीं जानते, आपका यह पुत्र एवं पुत्रवधू कोई सामान्य उपासक नहीं हैं।
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org