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६६६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड: ३ दोनों ने परस्पर यह भी निश्चय किया कि वे इस रहस्य को कहीं, कभी प्रकट नहीं करेंगे । किसी भी प्रकार जिस दिन यह प्रकट हो जायेगा, वे मुनि-धर्म स्वीकार कर लेंगेप्रवजित हो जायेंगे।
ब्रह्मचर्य की अखण्ड आराधना
तलवार की धार पर नंगे पैर चलने जैसा दुर्धर, दुष्कर व्रत स्वीकार कर विजय और विजया आत्म-विजय के अभियान पर चल पड़े। ब्रह्मचर्य की अखण्ड, अक्षुण्ण आराधना करते हुए वे गृहि-धर्म का सम्यक अनुसरण करते रहे।
अनुपम अन्त:-स्थिरता तथा विलक्षण आत्म-पराक्रम का जाज्वल्यमान प्रतीक उनका जीवन एक निराला जीवन था । साथ-साथ रहना, खाना-पीना, हंसना-बोलना, एक ही स्थान में शयन करना; इत्यादि नित्य-क्रम यथावत् चलते रहने, पारस्परिक सामीप्य बने रहने के बावजूद उनका जीवन जल-कमलवत् निर्लेप था। वे कभी काम-विकार से अभ्याहत नहीं हुए । सूर्य की तपती हुई किरणों से भी बर्फ न पिघले, अग्नि के निकट रखे जाने पर भी घास न जले, अहि-नकुल पास-पास रहते हुए भी न लड़ें, ऐसी स्थिति इस नवदम्पत्ति की थी। तरुण अवस्था, स्वस्थ शरीर, धन-वैभव एवं सुख-सुविधा के साधनों का वैपुल्य; यह सब होते हुए भी वे सदा काम-भोग से अतीत रहे, वासना से ऊँचे उठे रहे, यही उनकी विशेषता थी, जो लाखों में किन्हीं को प्राप्त हो सकती है । गृहस्थ में रहते हुए भी तितीक्षा की उच्चत्तम स्थिति व्यक्ति प्राप्त कर सकता है, विजय और विजया इसका सप्राण उदाहरण थे।
__ यह सब चल रहा था, केवल आत्म-शान्ति के लिए, आत्म-परितोष के लिए। किसी को इसकी भनक तक नहीं थी।
श्रेष्ठी जिनदास का मनः-संकल्प
एक महत्वपूर्ण प्रसंग उपस्थित हुआ। अंगदेश की राजधानी चम्पा में जिनदास नामक सेठ था। वह द्वादश व्रतधारी श्रमणोपासक था। पंच महाव्रतधारी साधुओं के प्रति उसकी अगाध भक्ति थी। साधुओं को देखते ही उसका हृदय खुशी से खिल उठता।
श्री विमल मुनि केवली चम्पा पधारे। अपने शिष्य-समुदाय सहित नगर के बहिर्वर्ती उद्यान में ठहरे। नागरिक जन केवली भगवान् को वन्दन करने गये। सेठ जिनदास भी गया । केवली भगवान् ने धर्म-देशना दी । सबने सुनी। जिनदास केवली भगवान् के मुखारविन्द से नि:सृत उपदेशामृत का पान कर परम आह्लादित था।
उपदेश की परिसमाप्ति के अनन्तर जिनदास ने केवली भगवान से सभक्ति निवेदन किया-"भगवान् ! मेरी यह हार्दिक उत्कण्ठा है, तीव्र भावना है, मैं चौरासी हजार मुनिवृन्द को एक साथ पारणा कराऊँ, उन्हें भिक्षा प्रदान करने का सौभाग्य प्राप्त करूं। प्रभो ! क्या मेरी यह उत्कण्ठा, मेरा यह मन:-संकल्प पूर्ण होगा?"
___ केवली भगवान् ने कहा---'देवानुप्रिय ! बड़ा कठिन कार्य है, जो असंभव-सा प्रतीत होता है। इतने मुनि उपस्थित हों, सामान्यतः यह कल्पना से बाहर है। यदि किसी भी तरह यह संभव हो सके तो इतने मुनियों को दिया जाने वाला विपुल परिमाणमय भोजन सर्वथा शुद्ध हो, यह भी एक प्रश्न है; अतएव यह सुसाध्य जैसा प्रतीत नहीं होता।"
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