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तत्त्वःआचारःकथानुयोग] कथानुयोग-विजय-विजया : पिप्पलीकुमार-भद्रा कापि० ६६५ भोगिए। मेरे कारण अपने संसार को मत उजाडिए, जीवन को नीरस मत बनाइए । मैं आपको जो यह कह रही हूँ, हृदय से कह रही हूँ। यह शिष्टाचार मात्र नहीं है । आपकी दूसरी पत्नी को मैं अपनी छोटी बहिन समझूगी। मुझसे उसको बड़ी बहिन का प्यार प्राप्त होगा, इसे आप निश्चित मानिये। मैं आपके जीवन में सरसता देखना चाहती हूँ। आपके प्रति मेरे मन में विद्यमान स्नेह तथा समर्पण का यही तकाजा है, आपका सुख ही मेरे लिए सुख बन जाए।"
अकित संयोग : एक सौभाग्य
विजय ने कहा-“विजया ! तुम निश्चय ही विजया हो। एषणा, लिप्सा और वासना को जीत पाने में तुम वस्तुतः विजया हो। जयशीला हो । तुम्हारी सहृदयता, उदारता एवं शुभेप्सुता असाधारण है, पर, तुम्हारा प्रस्ताव मुझे स्वीकार नहीं है । मैं दूसरा विवाह नहीं करूँगा । अतकित रूपेण उपस्थित संयोग के कारण, जिसे मैं एक सौभाग्य कहूंगा, जीवन भर के लिए ब्रह्मचर्योपासना का सुअवसर प्राप्त हो गया।
"जन्म-जन्मान्तर में हम न जाने कितनी बार भोगों में अनुरत रहे, पर, कभी तृप्ति हुई ? घृत डालने से यदि अग्नि बुझे तो भोगों से तृप्ति हो, अतः त्याग का आनन्द लेने का जो यह अवसर बना, मैं इसे कभी नहीं खो सकता।
"तुमने वंश-वृद्धि या वंश-परम्परा चलने की बात कही, इस सम्बन्ध में मेरा विचार अन्य है। पूर्व पुरुषों का नाम, सुकीर्ति, यशस्विता सन्तान से नहीं होती, सत्यकार्य से होती है। यदि मैं उत्तमोत्तम कार्य करूँगा, यो सहज ही मेरे पूर्व पुरुषों का नाम उजागर होगा, सब चिरकाल तक आदर के साथ उसे लेते रहेंगे।
विजया ! यह क्यों भूल जाती हो, सन्तति ऐसी भी हो सकती है, जो अपने दुष्कृत्यों से अपना भी, अपने पूर्व पुरुषों का भी नाम डुबो दे, उजागर करने के बदले कलंकित कर दे; अत: मेरी आस्था निष्प्राण रूढ़ियों में नहीं, सत्कृतित्व में है।"
. विजया ने अपने पति को पुनः समझाया-"जीवन की मंजिल बहुत दूर है, रास्ता बहुत लम्बा है, आपको एक लौकिक सम्बल लेना ही चाहिए। इसमें कुछ भी अनौचित्य नहीं है।" मोग के साहचर्य का त्याग के साहचर्य में परिणमन
"विजया ! मुझे तुम्हारी बातों से अभिनव प्रेरणा प्राप्त हुई है, मेरी सुषुप्त आत्मशक्ति जागरित हुई है। जब एक सुकुमार नारी आजीवन कठोर ब्रह्मचर्य-व्रत का सोत्साह, सोल्लास पालन कर सकती है, तो फिर एक पुरुष वैसा क्यों नहीं कर सकता । वह तो पौरुष का, पुरुषार्थ का प्रतीक है; अतः भोग को उद्दिष्ट कर जुड़ा हमारा साहचर्य अब त्याग में भी साहचर्य बना रहे, ऐसा मेरा सुदृढ़ निश्चय अन्त:संकल्प है। मैं भी यावज्जीवन ब्रह्मचर्य का पालन करूंगा। व्रताराधन के पुनीत पथ पर दो जीवन-साथियों के रूप में हम सदा गतिशील रहेंगे, अब से यही हमारा जीवन-क्रम होगा।"
पर्याप्त चिन्तन, विचार-विमर्श तथा ऊहापोह के अनन्तर इस नवदम्पति का यही आत्म-निर्णय रहा कि गृहस्थ में रहते हुए वे अखण्ड, निरपवाद ब्रह्मचर्य की आराधना करते रहेंगे। उनका जीवन नैष्ठिक ब्रह्मचारियों का जीवन होगा।
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