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________________ ६६४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : ३ अभी तो तुमने तीन वर्ष तक की मधुर प्रतीक्षा की चर्चा की थी। फिर ऐसा विचलन, ऐसी अस्थिरता, ऐसी व्याकुलता; यह सब क्यों, मैं कुछ भी नहीं समझ पा रहा हूँ ?" भाग्य का विचित्र खेल "नाथ ! भाग्य और संयोग की अप्रत्याशित, अपरिकल्पित विडम्बना ने मुझे सहसा झकझोर दिया । उसका आघात मैं झेल नहीं सकी, अस्थिर हो गई । स्वामिन् ! अब हमारा लौकिक अर्थ में वैवाहिक मिलन जीवन में कभी नहीं होगा । " विजय हतप्रभ - सा हो बोल उठा - " विजया ! क्या कहती हो ? पुरुष और नारी के स्नेह- संपृक्त, सहज, सुकोमल तन्तुओं से संयोजित मधुर मिलन से क्या हम सदैव वंचित रहेंगे ? मैं समझ नही पा रहा हूँ, यह कैसी विडम्बना है ?" स्वामिन् ! पत्नी पति की अर्धांगिनी होती है। महीने में पन्द्रह दिन आप ब्रह्मचर्य का पालन करें और पन्द्रह दिन मैं करूंगी। हमारा समस्त मास ब्रह्मचर्य की आराधना में ही व्यतीत होगा । मास की ही ज्यों वर्ष व्यतीत होगा । एक ही क्यों, ऐसे अनेक, अनेकानेक वर्ष व्यतीत होते जायेंगे। हम विवाहित ब्रह्मचारियों के जीवन का यही क्रम रहेगा । हमें भोग की सुखानुभूति को, जिसका मूल वासना में है, त्याग के अनन्य आनन्द में, जिसका उत्स आत्मा की निर्मलावस्था है, बदल देना होगा ।" "अब भी मैं नहीं समझ सका प्रिये ! तुम क्या कहना चाहती हो ? " आंशिक व्रत की जीवन-व्रत में परिणति “स्वामिन् ! जैसा आपके साथ घटित हुआ, लगभग वैसा ही मेरे साथ भी घटित हुआ । बचपन की बात है, मैंने एक साध्वी से ब्रह्मचयं की महिमा सुनी । आजीवन प्रत्येक मास के कृष्ण पक्ष के पन्द्रह दिन ब्रह्मचर्य का पालन करने की उसने प्रतिज्ञा ग्रहण की। कितना विलक्षण, विचित्र सयोग बना, आंशिक व्रत समग्र, प्रतिपूर्ण, अखंड व्रत के रूप में परिणत हो गया । व्रत तो व्रत ही है । उसमें कहीं कोई छूट या गुंजाइश की बात नहीं होती । "यह वैसा संयोग बना, जिसे एषणामय किन्तु, अध्यात्म का ओज संजोये हमें इसको अशक्य नहीं मानती । आत्मा में निश्चित रूप से विजय – “भाग्य का कैसा विचित्र खेल बना, एक पक्ष पूरा जीवन ही बन गया । आत्मा की अप्रतिम शक्तिमत्ता की जो बात तुमने कही, मैं उससे सर्वथा सहमत हूँ । वह तो एक अपरिहार्य सत्य है । हमें आत्म-ओज का संबल लिए इस कल्पनातीत किन्तु उपस्थित संयोग को सार्थक्य देना ही होगा और मुझे विश्वास है, हम वैसा कर पायेंगे 31 लोक भाषा में दुःखद कहा जा सकता है, सुखद रूप में परिणत करना होगा । मैं इसे अनुपम, अपरिमित, अगाध शक्ति है । "1 विजया का सुझाव विजयान् -"स्वामिन् ! मेरे मन में सहसा एक विचार उठा है। आपसे अनुनय पूर्वक, आदर-पूर्वक निवेदित करना चाहूँगी । जरा विचारिए, हमारी वंश-परम्परा भी तो चलनी चाहिए। लौकिक कर्तव्यता का यह तकाजा है । वह कैसे चलेगी ? "मैं हार्दिक प्रसन्नता के साथ आपसे अनुरोध करती हूँ, आप दूसरा विवाह कर लीजिए । सन्तानोत्पत्ति कर पितृ ऋण से उऋण बनिए। व्रत भी पालिए, संसार भी Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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