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________________ तत्त्व:आचार:कथानुयोग] कथानुयोग-विजय-विजया : पिप्पलीकुमार-भद्रा कापि० ६६३ और समृद्ध परिवार थे। सब प्रकार का सुख-सौविध्य था। यथासमय शुभ मुहूर्त में विजय और विजया का विवाह-संस्कार सानन्द सम्पन्न हुआ। प्रथम मिलन शुक्ल पक्ष द्वादशी तिथि थी। सुहागरात की सुमधुर वेला थी। विजय मन-ही-मन कुछ बेचैन-सा था। सुहावनी सुहाग-रात में मिलनोत्सुक प्रियतमा को वह कैसे समझा पायेगा। यह वेला शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के बाद आती तो कितना अच्छा होता। विजय जितेन्द्रिय था। वह पवित्र विचारों का धनी था। वह दैहिक के साथ-साथ मानसिक ब्रह्मचर्य का भी सम्यक् आराधक था; अतः उसकी आकुलता कामुकता-जनित नहीं थी, पत्नी की संभावित मनोव्यथा और निराशा-प्रसूत थी। दोनों का माधुर्यमय मिलन हुआ। उत्सुकता, प्रहर्ष, प्यार, स्नेहमय, तादात्म्य सुखद साहचर्य एवं सरस आकर्षण के मूक आदान-प्रदान में वे युगल प्रेमी तन्मय थे। विजय विजया के मुखचन्द्र का सुधा-पान करता हुआ अधाता नहीं था। विजया नारी-सुलभ लज्जा से मुख नीचा किये पति के प्रति सर्वस्व-समर्पण का स्नेहल उपहार लिए बैठी थी। विजय ने मौन तोड़ा और कहा-"प्रिये ! आज की यह प्रतीक्षित रजनी इसी रूप में अवसान पाए--तुम्हारे मुख-चन्द्र की सुधासिक्त ज्योत्स्ना में सराबोर होता हुआ मैं एकटक उसे निहारता रहूँ।" विजया समझ नहीं सकी, उसका प्रियतम क्या कह रहा है। उसकी निःशब्द जिज्ञासा उसकी सोत्सुक मुखमुद्रा के कारण विजय से छिपी नहीं रह सकती। उसने कहाप्रिय ! हमारे मधुर मिलन में केवल तीन दिन का विलम्ब है। तीन दिन का काल ही कितना होता है । झट बीत जायेगा, पर, तुम कुछ बोलती नहीं हो, क्या बात है ?" विजया ने कहा- "स्वामिन् ! तीन दिन की कोई बात नहीं है। मधुर मिलन की प्रतीक्षा में तीन दिन तो क्या, तीन मास और तीन वर्ष भी कुछ नहीं हैं। मिलन की प्रतीक्षा का अपना अनुपम एवं अनिर्वचनीय सुख है। यह आप जो रहस्यात्मक-सी भाषा में कुछ कहते जा रहे हैं, मैं उसका अभिप्राय समझ नहीं पा रही हूँ। इस प्रतीक्षा के पीछे क्या दासी का कोई अपराध है ? अथवा और कोई विशेष हेतु है, यह रहस्य उद्घाटित करने की कृपा कीजिए।" रहस्योद्घाटन विजय ने कहा-''तुम तो सौम्य-हृदया हो। तुम्हारे से कभी किसी अपराध की आशंका ही मैं नहीं मानता। वस्तुतः बात यह है, विवाह से पूर्व एक प्रसंग बना-एक मुनि के उपदेश से उत्प्रेरित होकर मैंने उनसे एक प्रतिज्ञा ली कि प्रत्येक मास के शुक्ल पक्ष के पन्द्रह दिन में ब्रह्मचर्य का पालन करूँगा। शुक्ल पक्ष के अब केवल तीन ही दिन तो अवशिष्ट हैं।" - विजय के मुख से ज्योंही यह सुना, विजया स्तब्ध रह गई। धरती मानो उसके पैरों के नीचे से खिसकने लगी। उसके नेत्रों से आंसू टपक पड़े। केवल उसके मुंह से इतना ही निकला-"स्वामिन् !" यह दृश्य देखकर विजय चौंक गया। वह कुछ भी समझ नहीं सका, यह क्या हो गया। कुछ गम्भीर होकर उसने विजया से कहा-"प्रियतमे ! तुम एकाएक इतनी घबरा गई। ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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