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________________ ६६२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड:३ भिन्नता के बावजूद मूल कथावस्तु में अभिन्नता है। दोनों संकल्प-शक्ति की दृढ़ता के परिचायक हैं और ब्रह्मचर्य-साधना में अभिरत स्त्री-पुरुषों के लिए निश्चय ही बड़े प्रेरक हैं। विजय-विजया श्रेष्ठी अर्हद्दास बहुत पहले की बात है, कच्छ देश में अर्हद्दास नामक एक सेठ था। वह धार्मिक, सौम्य और भद्र था। उसकी पत्नी-सेठानी का नाम भी, उसके अपने नाम के अनुरूप अर्हदासी था। वह असाधारण रूपवती होने के साथ-साथ अत्यन्त धर्मनिष्ठ, व्यवहारकुशल तथा सदाचार-परायण थी। श्रेष्ठिकुमार विजय श्रेष्ठी अर्हद्दास के केवल एक पुत्र था । उसका नाम विजय था। वह बड़ा योग्य तथा सच्चरित्र था। सौम्यता, सहृदयता, करुणा, सेवा आदि गुण उसे पैतृक परंपरा से प्राप्त थे। धर्म के प्रति उसकी अडिग निष्ठा थी। उसे सत्संग की सहज अभिरुचि थी। जब भी अवसर मिलता, वह साधुओं के दर्शन, सान्निध्य एवं उपदेश का लाभ लेता। ब्रह्मचर्य की प्रेरणा : आंशिक प्रत्याख्यान एक बार का प्रसंग है, एक मुनि धर्मोपदेश कर रहे थे। उन्होंने अपने प्रवचन में ब्रह्मचर्य का बड़े सुन्दर तथा प्रेरक शब्दों में विवेचन किया । ब्रह्मचर्य की महिमा का बखान किया। उन्होंने कहा कि वे निश्चय ही धन्य हैं, उनका मनुष्य-भव सार्थक है, जो ब्रह्मचर्य का श्रद्धा एवं आत्मबल द्वारा पालन करते हैं। श्रेष्ठिपुत्र विजय धर्म-परिषद् में उपस्थित था। वह मुनि के उपदेश से बहुत प्रभावित हआ । वह मन-ही-मन सोचने लगा-कितना अच्छा हो, मैं ब्रह्मचर्य की साधना कर सकें। यह बड़ा कठोर व्रत है । इसकी समग्र, निरपवाद साधना बड़ी दुष्कर है, किन्तु, अपने सामर्थ्य एवं शक्ति के अनुरूप आंशिक साधना मुझे अवश्य करनी चाहिए। वैचारिक ऊहापोह और चिन्तन के पश्चात् विजय ने यह निश्चय किया कि जीवन भर प्रत्येक मास में पन्द्रह दिन उसे ब्रह्मचर्य का अखण्ड पालन करना है। अपने इस मानसिक संकल्प के अनुरूप उसने मनिवर से प्रत्येक मास के शुक्ल पक्ष के पन्द्रह दिन जीवन-पर्यन्त ब्रह्मचर्य-पालन का व्रत स्वीकार किया। विजय सौम्य, कर्तव्यनिष्ठ तथा विवेकशील था। उसका दैनन्दिन जीवन-क्रम बड़े समीचीन एवं सुव्यवस्थित रूप में चलता था। मानव-जीवन की महत्ता से वह सम्यक अवगत था । अतः धर्म के अनुरूप सात्त्विक चर्या, सद्व्यवहार और शालीनता उसके जीवन के सहज अंग थे। धनवाह श्रेष्ठि-कन्या विजया से विवाह कच्छ देश में धनवाह नामक सेठ था। उसके एक पुत्री थी। उसका नाम विजया था। वह बहुत सुन्दर, सुयोग्य तथा सुशील थी। कितना श्रेष्ठ संयोग था—नाम एवं गुण दोनों में अपने अनुरूप विजय के साथ विजया का सम्बन्ध निश्चित हुआ। दोनों सुसम्पन्न ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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