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________________ तत्वःआचारःकथानुयोग ] कथानुयोग - विजय-विजया : पिप्पली कुमार-भद्रा कापि० ६६१ १९. विजय-विजया : पिप्पली कुमारभद्रा कापिलायिनी विकारोत्पत्ति के साधनों की विद्यमानता के बावजूद विकार-शून्य बने रहना, वास्तव में अद्भुत आत्मशक्ति का परिचायक है । जैन - वाङ्मय के अन्तर्गत विजय-विजया का कथानक एक इसी प्रकार का चामत्कारिक प्रसंग है । दोनों विवाहित हैं, पति-पत्नी हैं। एक साथ रहते हैं, यहाँ तक कि एक ही शय्या पर शयन करते हैं, किन्तु, जल में निर्लेप कमल की ज्यों वे वासना से अलिप्त रहते हैं । इतना और वे इसे प्रकट तक नहीं होने देते । कन्दर्प- दर्प-दलने विरला मनुष्याः - यह उक्ति उन पर यथावत् चरितार्थ होती है । बौद्ध साहित्य में इसी प्रकार का पिप्पलीकुमार और भद्रा का कथानक है । वे भी दोनों पति-पत्नी हैं। साथ में रहते हैं, एक साथ खाते हैं, पीते हैं और उसी प्रकार एक शय्या शयन करते हैं, किन्तु, उनका जीवन अखण्ड ब्रह्मचर्य लिए होता है । दोनों ही कथानकों में कथानायकों के जीवन का उत्तर भाग प्रव्रजित जीवन में पर्यवसित होता है । विजय और विजया प्रतिज्ञाबद्ध थे, जिस दिन उनके ब्रह्मचर्य पालन का रहस्य प्रकट हो जायेगा, वे गृह त्याग कर देंगे। ज्योंही एक घटना विशेष के प्रसंग में वह प्रकट होता है, वे प्रव्रज्या का पथ स्वीकार कर लेते हैं । 1 पिप्पलीकुमार तथा भद्रा कापिलायिनी के गृह त्याग का कारण एक वार्ता-प्रसंग बनता है । खेती में, गृहकार्य में होते प्राणि-वध-मूलक पापों का दायित्व इन श्रमिकों, परिचारकों और परिचारिकाओं पर नहीं है, जो उन्हें करते हैं । सेवक-सेविकाओं का इस आशय का कथन कि वह सब तो वे अपने स्वामी और स्वामिनी की आज्ञा से करते हैं, उनका फल वे कैसे भोगें, सुनते ही दोनों अपने-अपने स्थान पर चौंक पड़ते हैं, पापमय जगत् का परित्याग करते हैं, बुद्ध की शरण प्राप्त करते हैं । विजय एवं विजया द्वारा आजीवन ब्रह्मचर्यं स्वीकार करने के घटना-प्रसंग का अद्भुत वैशिष्ट्य है, जिससे कथानक की प्रेषणीयता बलवत्तर हो जाती है । विजय प्रतिमास शुक्ल पक्ष के पन्द्रह दिन ब्रह्मचर्य पालन का व्रत लिए था तथा विजया के प्रतिमास कृष्ण पक्ष के पन्द्रह दिन अब्रह्मचर्य का प्रत्याख्यान था । दोनों इस सम्बन्ध में परस्पर अनभिज्ञ थे । ज्योंही रहस्य खुलता है, वे यह सोचकर स्तंभित हो जाते हैं—दोनों के दो पक्षों के त्याग की श्रृंखला में सारा जीवन ही सिमट जायेगा । किन्तु, दोनों का आत्मबल उद्बुद्ध होता है, संयोगवश प्राप्त इस अप्रत्याशित दुष्कर प्रसंग को वे हँसते-हँसते सहज लेते हैं और शान से निभाते हैं । भद्रा और पिप्पली कुमार, जैसा कथानक में वर्णित है, ब्रह्मचर्य के प्रति प्रारम्भ से ही इतने निष्ठाशील हैं कि विवाह की बात तक सुनना नहीं चाहते । ज्योंही वैवाहिक प्रसंग उपस्थित होता है, वे अपने दोनों कानों में अँगुलियाँ डाल लेते हैं । जैन और बौद्ध दोनों कथानकों में, जो यहां वर्णित हैं, यत्किञ्चित् पारिपाश्विक Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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