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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : ३
लोभ में फँसा मनुष्य अदत्त - बिना दिया भी ले लेता है - चोरी करने लग जाता है । "
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किसी भी वस्तु में ममत्व - ममता - यह मेरी है, ऐसा सतृष्ण या आसक्त भाव नही रखना चाहिए।"
जो तृष्णा को मिटा देता है, उसके लोभ नष्ट हो जाते हैं । लोभ का नाश हो जाने पर मनुष्य अकिञ्चन - सही अर्थ में अपरिग्रही हो जाता है ।
यदि कार्षापणों -- सोने के सिक्कों की वर्षा भी हो, तो भी कामना — तृष्णा- ग्रस्त पुरुष को तृप्ति - सन्तुष्टि नहीं होती ।"
यदि हिमालय के समान स्वर्ण का पर्वत हो, वह भी दे दिया जाए तो भी लोभी का लोभ शान्त नहीं होता, तृष्णा नहीं मिटती । अतः ज्ञानी पुरुष को चाहिए वह जीवन में संतोष अपनाए ।
जैसे पतंगे प्रद्योत में— जलते हुए दीपक में आ आकर गिरते रहते हैं, झुलसते रहते हैं, मरते रहते हैं, उसी प्रकार तृष्णाकुल मनुष्य दृष्ट और श्रुत - देखी और सुनी लुभावनी वस्तुओं के मोह में फँस जाते हैं, अन्ततः नष्ट हो जाते हैं ।
लुब्ध पुरुष सदा घन जोड़ने में लगा रहता है।
लोक में किसी भी पदार्थ पर ममत्व मत रखो उस पर आसक्त मत बनो 15
१. लोभाविले बाययई अदत्तं ।
२. ममत्तभावं न कहि पि कुज्जा ।
३. तण्हा हया जस्स न लोहो हो जस्स न
- उत्तराध्ययन सूत्र ३२.२६
- दशवेकालिक चूर्णि २.८ होई लोहो, किंचणाई ||
— उत्तराध्ययन सूत्र ३२.८
४. न कहापणवस्सेन, तित्ति कामेसु विज्जति । - धम्मपद १४.८ ५. पर्वतोऽपि सुवर्णस्य, समो हिमवतो भवेत् । नालमेकस्य तद् वित्त-मिति विद्वान् समाचरेत् ॥ - दिव्यावदान पृष्ठ २२४ पज्जतमिवाधिपातका, दिट्ठे सुते इति हेके निविट्ठा ।
६. पतन्ति
—सुत्तनिपात ६.९
७. लुद्धा घनं सन्निचयं करोति ।
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—थेरगाथा ७७ε
८. न च ममायेथ किञ्चि लोकस्मिं ।
- सुत्तनिपात ५२.८
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