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तत्व
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तत्त्व : आचार : कथानुयोग] अपनी दुष्प्रवृत्ति को समझता है, अपने किये पर पछताता है।'
मिथ्या-प्रणिहित पित्त-असत्य मार्ग पर भारूढ़-असत् प्रवृत्तियों में संलग्न चित्त जितनी अपनी हानि करता है, एक शत्रु भी उतनी हानि नहीं कर सकता।'
तष्णा का उन्माद
तृष्णा अपरिसीम है। कितना ही कुछ क्यों न प्राप्त हो जाए, बहशात नही होती। तृष्णा एक प्रकार का उन्माव है, जो व्यक्ति को विवेक-शून्य बना गलता। अतएप पारण कारों ने तृष्णा को नष्ट करने का विशेष रूप से उपदेश दिया है।
यवि कैलाश के तुल्य स्वर्ण और रजत के असंख्य उच्च पर्वत भी अधिगत हो जाए, तो भी सृष्णाविष्ट, लोभाविष्ट पुरुष की सन्तुष्टि नहीं होती; क्योंकि इण्यामों के भाका की ज्यों कोई अन्त नहीं है।'
शालि - उत्तम जातीय चावल, जी, स्वर्ण तथा गाय, भैस भावि पशुओं से भापूर्ण पृथ्वी भी यदि किसी को दे दी जाए तो भी उसकी इच्छा पूरी नहीं होती, तृष्णा नहीं मिटती यह जानकर विज्ञ पुरुष को चाहिए, वह साधनामय जीवन स्वीकार करे।
प्रकाश में लोलुप-सतुष्ण बमा पतिंगा जैसे उसमें गिरकर अपनी जान गंवा बैता है, उसी प्रकार तृष्णा से भातुर-आकुल पुरुष उसी में अपने आपको नष्ट कर देता है।
१. न तं भरी कंठवेत्ता करे,
जं से करे अप्पणिया दुरप्पा । से नाई मधुमुहं तु पत्ते, पच्छाणुतावेण दयाविहूणो ॥
-उत्तराध्ययन सूत्र २०.४५ २. दिसो दिसं यन्तं कपिरा, वेरी वा पन वेरिन । मिच्छापणिहितं चित्त' पापियो, में ततो करे ।
- धम्मपद ३.१० ३. सुवण्ण रुप्पस्स उ पब्बया भये, सिया हु केलाससमा असंखया । णरस्स लुस्स ण तेहि किषि, इच्छाह मागाससमा भणंतिया ॥
-उत्तराध्ययन सूत्र १४.४८ ४. पुढ़वी साली जमा वेष, हिरणे पसुभिस्सह । परिपुण्ण गालमेगास, विजा तवं पर।
- उत्तराध्ययन सूत्र १.४६ ५. रागाउरे से जहपा पपंगे, भालोपलोले समुहमा
--उत्तराध्ययन पूष ३२.२४
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