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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग-कपटी मित्र :प्रवंचना : कूट वा० जा० ६५५
राजा ने सुमित्र से कहा- "ऐसे दुष्ट दुमित्र के लिए क्यों रोते हो ? उसने सदा तुम्हारे रास्ते में कांटे ही कांटे बिछाये, तुम्हारे साथ प्रवञ्चना ही प्रवञ्चना की। अच्छा हुआ, पाप कटा।"
महाराज ! वह कुमित्र था। उसने कुमित्र का कार्य किया। मैं तो सुमित्र हैं, मुझे सदा सुमित्र के रूप में ही रहना चाहिए । दुर्जन होते हुए भी उसकी दुःखद मृत्यु पर मेरा मन खिन्न हुआ है । पर, कर्म-संयोग ऐसा ही था। सुमित्र का श्रीपुर आगमन
___ कुछ समय सिंहल द्वीप में आनन्द पूर्वक रहने के अनन्तर सुमित्र बड़े ठाट-बाट से अपनी पत्नी सहित श्रीपुर आया। माता-पिता तथा परिजनद को अत्यन्त हर्ष हुआ । नागरिक जन ऐसे सत्पुरुष को पुनः प्राप्त कर बड़े प्रसन्न हुए।
वसुमित्र अपने पापों के कारण मरकर नरकगामी हुआ। सुमित्र ने सांसारिक सुख, समृद्धि भोगते हुए। धार्मिक जीवन जीते हुए अन्त में चारित्र ग्रहण किया, वह शिवपुर का राही बना।'
कट वाणिज जातक फूट व्यापारी तथा पंडित व्यापारी .
श्रावस्ती नगरी में कूट व्यापारी तथा पंडित व्यापारी संज्ञक दो वाणिज्योपजीवी पुरुष निवास करते थे। उन्होंने हिस्सेदारी से व्यापार करना आरम्भ किया। सामान की पांच सौ गाड़ियाँ भरीं । वे व्यापारार्थ पूर्व से पश्चिम घूमे, व्यापार किया, बहुत लाभ कमाया। फिर श्रावस्ती लौटे।
पंडित व्यापारी कूट व्यापारी से बोला-"मित्र ! हम अपना सामान, अजित लाभ बांट लें।"
कूट व्यापारी का दुश्चिन्तन
कुट व्यापारी मन ही मन विचार करने लगा-यह बहुत समय तक मेरे साथ व्यापारार्थ घूमता रहा है। बहुत दिनों तक सुख से शयन तथा उत्तम भोजन नहीं मिला है। यह काफी थका है । अब अपने घर आ गया है । तरह-तरह के उत्तमोतम पदार्थ खायेगा। इससे उसे अजीर्ण होगा और यह मर जायेगा । तब जो कुछ हम कमाकर लाये हैं, वह अकेले मेरा ही हो जायेगा । अतएव वह कूट व्यापारी बँटवारा करने में टालमटोल करता रहा। कभी कहता-नक्षत्र उत्तम नहीं है, कभी कहता-दिन शुभ नहीं हैं, फिर देखेंगे। इस तरह वह टालमटोल में समय व्यतीत करने लगा।"
पंडित व्यापारी शास्ता की सेवा में
___पंडित व्यापारी ने उसे बहुत कह-सुनकर बंटवारे के लिए तैयार किया, बंटवारा करवाया। तदनन्तर वह हाथ में सुगन्धित फूलों की माला लिए शास्ता के पास गया, पूजा
१. आधार :-धर्मरत्न प्रकरण टीका, भाग २ पृष्ठ १५०
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