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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-कपटी मित्र : प्रवंचना : कूट वा० जा० ६५३ राजा बोला-"वंश आदि जानने का अवसर ही उपस्थित नहीं हुआ। क्योंकि मैं प्रतिज्ञाबद्ध था कि जो मेरी पुत्री की नेत्र-पीड़ा मिटा देगा, उसके साथ मैं उसका विवाह कर दूंगा। अपनी प्रतिज्ञानुसार अपनी पुत्री उसे ब्याह दी। तुम उसके कुल, वंश आदि के सम्बन्ध में जानते हो तो बतलाओ।" वसुमित्र- "राजन् ! मैं इसके वंश आदि के सम्बन्ध में भलीभांति जानता हूँ, इसके खानदान को जानता हूँ। मैं भी श्रीपुर का निवासी हूँ और यह भी श्रीपुर का निवासी है।" "महाराज ! यह चाण्डाल-जाति का है । भाग्यशाली है, गौरवर्ण है, रूपवान् है, किन्तु जन्म तो चाण्डाल के घर में हुआ।" राजा-"सर्वनाश हो गया। एक चाण्डाल मेरा जामाता बना। इसे अपनी स्थिति, कुल-परम्परा आदि पर गौर करना था, मुझे सब बताना था। इसने ऐसा कुछ भी नहीं किया। बड़ा धोखा हुआ। खैर, वसुमित्र ! तुम अभी जाओ, जैसे भी हो मैं देखूगा, स्थिति से निपटूंगा।" वसुमित्र वहाँ से अपने ठिकाने पर लौट आया। उसने सोचा-"मेरा निशाना ठीक लगा। अब सुमित्र जिन्दा नहीं बचेगा।" राजा बहुत चिन्तित एवं उद्विग्न हुआ। उसने अपने मंत्री को बुलाया। सारी बात उससे कही और अपना अभिमत प्रकट किया-"मन्त्रिवर ! मेरा मन इस घटना से बहुत व्यथित है। जो भी हो, चाहे मेरी पुत्री विधवा ही क्यों न हो जाए, मैं इस चाण्डाल को जामाता के रूप में स्वीकार किये नहीं रह सकता और न इसे अपना आधा राज्य ही दे सकता है।" मन्त्री-"राजन् ! अब हो भी क्या सकता है, बात तो सारी बन गई । आप बतलाएं, क्या किया जाए।" राजा-"मन्त्री ! कोई गुप्त योजना बनाओ और उस चाण्डाल की हत्या करवा दो। मैं राजकुमारी को बाद में सब समझा दूंगा।" कुछ सोचकर मन्त्री बोला--"मुझे एक युक्ति सूझी है। कल हम लोग राजसभा में एक नाटक आयोजित कराएं। जामाता को भी नाटक देखने आमन्त्रित करें। छद्म वेष में मेरे आदमी वहाँ पहले से तैयार रहेंगे, वो अंधेरे में उसकी हत्या कर डालेंगे। किसी को कुछ भनक तक न पड़ेगी।" राजा ने मन्त्री की योजना पसंद की। मन्त्री अपने घर लौट आया। राजकुमारी मदन रेखा अपने माता-पिता से मिलने राजमहल में आई । अन्तःपुर में उसने अपनी मां से भेंट की। अब उसे अपने पिता से मिलकर वापस अपने निवास स्थान को जाना था। उसकी पालकी राजमहल के दरवाजे पर तैयार थी। राजा ने कहा--"पुत्री ! तुम्हारा भाग्य बडा निम्न निकला।" राजकुमारी-"तात ! ऐसा क्यों कहते हैं ? मैं अपने को बहुत भाग्यशालिनी मानती हूं। मुझे ऐसा पति मिला है, जो रूप, गुण, सौन्दर्य आदि लाखों में एक है। तात ! फिर मेरे भाग्य को आप निम्न-मन्द क्यों कह रहे हैं ?" राजा- "पुत्री ! एक बात बताओ, क्या तुमने अपने पति के किसी आचरण में, व्यवहार में, संभाषण में कभी कोई अकुलीनोचित बात तो नहीं देखी ?" राजकुमारी- "चन्दन में कभी दुर्गन्ध होगी, यह कल्पनातीत है, सूर्य में कभी किसी ने छिद्र देखा? वैसा कभी नहीं होता। उसी प्रकार मेरे पति में अकुलीनोचित प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ? वे उच्च, उज्जवल कुल में उत्पन्न हैं। उनकी प्रत्येक चेष्टा, प्रत्येक कार्य, Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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