SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 712
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६५२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड:३ उसको ध्यान से देखा, पहचाना-यह सुमित्र ही है। वह आश्चर्य से चौंक उठा । उसने वहाँ भीड़ में खड़े एक मनुष्य से पूछा- “यह कौन है, जो इतनी शान से, ठाट-बाट से अश्वारूढ हुआ जा रहा है ?" नागरिक ने कहा-"तुम परदेशी मालूम पड़ते हो। इसीलिए नहीं जानते । यह हमारे राजा का जामाता सुमित्र है।" वसुमित्र मन ही मन कहने लगा-"इसने भी खूब किया। यहाँ आकर राजकुमारी से विवाह कर लिया, राजा का जामाता बन गया। एक बार तो शर्त लगाकर इसका सारा धन, माल हथिया लिया था, अब इसे और देखूगा।" वसुमित्र यथासमय सुमित्र के घर गया। दिखावटी प्रेम से उसके साथ बड़ी चिकनीचुपड़ी बातें करने लगा। कहने लगा--"सुमित्र! मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सका। इसलिए मैंने इतनी दूर तुम्हें खोज लिया, तुम्हारे पास आ गया। अब बतलाओ, यहाँ ससुराल में ही निवास करोगे या मेरे साथ श्रीपुर चलोगे?" सुमित्र बोला---'ससुराल में नहीं रहूँगा, अपने घर चलूंगा, जिसमें मेरी पत्नी को मेरे माता-पिता-अपने सास-ससुर की सेवा करने का सुअवसर प्राप्त हो। तुम वापस कब जाओगे।" वसुमित्र- "कल तो यहाँ पहुंचा हूँ। बस माल बिक जाए, जितनी देर है।" सुमित्र- ' अपने ससुर राजा सिंहरथ से कहकर तुम्हारा सभी माल राज्य करों से मुक्त करवा दूं। अपना माल राज्य के गोदाम में भरवा देने को तैयार रखो। मैं व्यवस्था करता हूँ।" वसुमित्र मन में आगे का ध्यान करते हुए सुमित्र से बोला- ऐसा नहीं करेंगे। अपने ससुर राजा सिंहरथ से मेरा परिचय मत कराना। मुझे एक व्यापारी हैसियत से ही व्यापार करने दो।" सुमित्र- "जैसा तुम उचित समझो। पर, मुझ से समय-समय पर मिलते अवश्य रहा करो।" वसुमित्र का षड्यन्त्र वसुमित्र ने सुमित्र के साथ भोजन किया, कुछ देर उसके साथ रुका। वापस अपने ठिकाने पर आया। सुमित्र का वैभव, सम्पत्ति, सम्मान, प्रतिष्ठा देख कर वह भीतर ही भीतर कुढ़ने लगा। वह अपने मन में यह दुष्कल्पना करने लगा कि जिस किसी तरह हो, इसे धोखा दूं, इसके विरुद्ध कोई षड्यन्त्र रचवाऊं कि यह जीवन तथा सम्पत्ति-दोनों से हाथ धो बैठे। उसने राजा सिंहरथ से मिलने की योजना बनाई। वह बड़ा धूर्त और वाचाल था। उसने कुछ उपहार लिये। राजा से मिला । उपहार भेंट किये । राजा प्रसन्न हुआ। उसके बाद भी वह राजा के यहाँ जाता-आता रहा। राजा के साथ उसका अच्छा परिचय, संपर्क हो गया। एक दिन वह राजा के साथ एकान्त में बैठा था। अनुकल अवसर देखकर उसने राजा से कहा-"महाराज ! कुछ समय से मन में एक बात थी। आपको कहना चाहता था, पर कहने का साहस नहीं हुआ। आज साहस कर वह बात मैं आप से कहना चाहूँगा । कृपया सुनें, क्या आप जानते हैं, आपका यह जो जामाता है, कौन है ?" ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy