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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग — कपटी मित्र : प्रवचना : कूट वा० जा०
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गरुड़ बोला- "मैं जानता तो हूँ, पर मेरे जानने से क्या बने । खैर, फिर भी बतला तो दूं । देखो जिस वृक्ष पर हम बैठे हैं, एक लता उसके तने से लिपटी है । उसकी पत्तियों का चूर्ण पानी में घोलकर नेत्र में डाला जाए तो किसी भी प्रकार का नेत्र रोग, नेत्र- पीड़ा तत्क्षण दूर हो जाए। पर, कोई मनुष्य इस रहस्य को जाने तब न ।”
गरुड़ की पत्नी ने निराशापूर्ण सांस छोड़ते हुए वनौषधि प्रयोग द्वारा मनुष्य को स्वस्थ कर सकता है, नहीं । हम पक्षी वनौषधि का रहस्य जानते हैं, पर कुछ सुमित्र बरगद के नीचे यह सब सुन रहा था । उसने गरुड द्वारा उद्घाटित रहस्य जान लिया। वह प्रातः काल शीघ्र उठा, नित्य - कृत्य से निवृत हुआ । नवकार मंत्र का जप किया। बरगद से लिपटी हुई लता की पत्तियां तोड़ीं, अपने दुपट्टे के कोने में बाँधी । वैसा कर वह समुद्र के तट पर बैठा । अब उसका शुभोदय काल आने को था । वैसा होने पर सहज ही अनुकूल संयोग प्राप्त हो जाते हैं ।
कहा- "कैसी विडम्बना है, मनुष्य पर वह वनौषधि का रहस्य जानता कर पाने में अक्षम हैं । "
सिंहल द्वीप की ओर जाने वाला कोई जहाज वहाँ आया । जहाज का स्वामी बड़ा सज्जन था । उसने सुमित्र को जहाज में बिठा लिया । सुमित्र जहाज द्वारा सिंहल द्वीप की राजधानी सिंहल नगर में आ गया। राजकुमारी की नेत्र - पीड़ा दूर करने वाले के साथ उसका विवाह करने तथा उसे सिंहल द्वीप का आधा राज्य देने की घोषणा का पटह — ढोल सुनाई दिया । सुमित्र पटह के समीप पहुँचा । उसने उसका स्पर्श किया, जिसका अभिप्राय था कि मैं यह कार्य कर सकता हूँ ।
सुमित्र को राजकर्मचारी राजमहल में ले गये। जैसा गरुड पक्षी ने बताया था, उसने लता की पत्तियों का चूर्ण बनाया, उसे पानी में घोला, राजकुमारी के नेत्रों में डाला, नेत्र - पीड़ा तत्काल ठीक हो गई । राजा, राज परिवार और सभी लोग बड़े प्रसन्न हुए । राजा ने अपनी घोषणा के अनुसार मदनरेखा का पाणिग्रहण सुमित्र के साथ कर दिया । उसे आधा राज्य देने का संकल्प प्रकट किया। राजा ने सुमित्र को रहने के लिए पृथक् एक सुन्दर प्रासाद दे दिया । रक्षक दल, नौकर, नौकरानियां सभी अपेक्षित साधन-सुविधाओं के साथ उस प्रासाद में टिकवाया । सुमित्र अपनी पत्नी मदनरेखा के साथ अपना पुण्य फल भोगता हुआ सुख से वहाँ रहने लगा ।
उधर उसके मित्र वसुमित्र ने विदेश में व्यापार किया, प्रचुर धन कमाया। वह भूमार्ग से अपने नगर श्रीपुर वापस लौटने का विचार कर रहा था कि उसे एक सामुद्रिक व्यापारी - समुद्रों पर होते हुए व्यापार करने वाला वणिक् मिला । उसने वसुमित्र से कहा"वसुमित्र ! तुम व्यापारी हो । व्यापारी साहसी होता है । साहसी और उत्साहो जनों का ही सौभाग्य साथ देता है। मैं व्यापारार्थ सिंहल द्वीप की यात्रा पर जा रहा हूँ। तुम भी मेरे साथ चलो । वहाँ रत्न बहुत कम मूल्य में प्राप्त होते हैं ।"
वसुमित्र बोला – “एकाकी जाने का तो मेरा विचार नहीं था और न मैं वैसा साहस ही कर पाता। पर, तुम जा रहे हो, तुम्हारे साथ मैं अवश्य जाऊंगा ।"
वसुमित्र ने अपनी पण्य सामग्री- - माल जहाज में भरवाया। उसके साथ जहाज द्वारा सिंहल द्वीप पहुँचा । अपने ठहरने की व्यवस्था की । माल रखने हेतु उसने भाड़े पर एक गोदाम लिया । उसमें माल रखा। बाजार में गया । वहाँ उसकी दृष्टि अश्वारूढ सुमित्र पर पड़ी । वह आगे-आगे चल रहा था । उसके पीछे-पीछे उसके अंगरक्षक चल रहे थे । वसुमित्र ने
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