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________________ तस्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग –— कपटी मित्र : प्रवंचना कूट वा० जा० ६४७ सच्चे मित्र ने झट से जवाब दिया- "कहो न, खजाने का क्या हुआ ? क्या कभी खजाना भी कोयला बना सुना है ?"" प्रवंचना श्रेष्ठिपुत्र सुमित्र I श्रीपुर नामक नगर था । वहीं बड़े-बड़े सम्पन्न व्यापारी तथा धनी सेठ साहूकार निवास करते थे । उसी नगर में समुद्रदत्त नामक सेठ था । वह अत्यन्त वैभवशाली था, साथ ही साथ उदारहृदय दानशील भी । उसके एक पुत्र था। उसका नाम सुमित्र था । अपने पिता के सद्गुणों और विशेषताओं के अनुरूप वह उत्तमोत्तम गुणयुक्त था, सुयोग्य एवं धर्मानुरत था, अपने नाम के अनुरूप वह एक अच्छा और साथियों का हित चाहने वाला मित्र था - शब्द से ही नहीं ; अर्थ से भी, अभिप्राय से भी सुमित्र था । वसुमित्र उसी नगर में वसुमित्र नामक एक अन्य सेठ का लड़का था । सुमित्र के साथ उसकी मित्रता थी । वसुमित्र केवल कहने भर को मित्र था, वह वस्तुवृत्त्या अमित्र था अथवा मित्र के रूप में ऊपर से प्रिय दीखने वाला मधुर शत्रु था । वसुमित्र का यह स्वभाव था, वह सामने बड़ी मीठी बातें करता, पीछे से मित्र का सदा अहित सोचता। वह पीठ पर छुरा भोंकने वाला कलुषित वृत्ति का व्यक्ति था । एक बार दोनों मिले। सुमित्र ने कहा- “मित्र हमारे पास पैतृक सम्पत्ति तो बहुत है । उसका सुख भोग अब तक हम करते रहे हैं । मेरा विचार है, विदेश जाकर व्यापार कर स्वयं अपने पुरुषार्थ तथा बुद्धि द्वारा धनोपार्जन करें। अपने द्वारा उपार्जित सम्पत्ति के भोग का अपना एक विशेष आनन्द है । 1 व्यापारार्थ प्रस्थान दोनों ने अपने माता-पिता तथा पारिवारिक जनों से स्वीकृति प्राप्त की । व्यापारार्थ गाड़ियों में पण्य सामग्री - माल लादा । दोनों ने अपने-अपने सार्थ — काफ़िले तैयार किये और रवाना हुए। यात्राक्रम में अपने काफ़िलों के साथ वे दिन भर चलते, सायंकाल जहां पहुँच पाते, वहाँ विश्राम करते । धन हड़पने की चाल एक बार का प्रसंग है, शाम को किसी गाँव में उनका पड़ाव लगा था। दोनों मित्रों के बीच धर्म और अधर्म के सम्बन्ध में चर्चा चल पड़ी। सुमित्र धर्म के पक्ष में था और वसुमित्र अधर्म के पक्ष में । सुमित्र कहने लगा- “धर्म जीवन का, जगत् का आधार है । वह सर्वोपरि है । इस नश्वर जगत् में धर्म ही एक सारभूत पदार्थ है । उसी के बल पर यह पृथ्वी और आकाश टिके हैं । " १. आधार - आवश्यक चूर्णि पृष्ठ ५५१ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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