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________________ ६४६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : ३ प्राप्त हुआ। दोनों ने उसे वहां से निकाल कर ले जाने पर विचार किया। दोनों को ऐसा जंचा कि यह खजाना हम आज न ले जाएं; उत्तम मुहूर्त, शुभ वेला में ले जायेंगे। यों सोचकर दोनों अपने-अपने स्थान पर चले गये। विश्वासघात उन दोनों मित्रों में एक बड़ा कपटी था। उसके मन में पाप पैदा हुआ-अपने मित्र को मालूम न होने देकर मैं अकेला ही सारा खजाना हड़प लूं। ऐसा विचार कर वह गुप्त रूप में वहाँ गया, जहां खजाना गड़ा था। उसने खोदकर उस जगह से गड़ा धन निकाल लिया उसके स्थान पर कोयले रख दिये। धन के बदले कोयले वह धन लेकर अपने घर लौट आया। कुछ समय बाद दोनों मित्रों ने खजाना निकालने हेतु उत्तम मुहूर्त, शुभ वेला निश्चित की। तदनुसार वे खजाना निकालने उस स्थान पर आये, जहाँ वह गड़ा था। खोदने पर वहाँ धन के बदले कोयले मिले । __ छली मित्र बनावटी निराशा के स्वर में बोला-"मित्र ! क्या किया जाए, हम बड़े अभागे हैं, स्वयं ही धन के कोयले बन गये।" यह सुनकर वह मित्र जो सच्चाई पर था, सब समझ गया, पर चुप रहा । वह गंभीर था। उसने कोई उत्तर नहीं दिया। जैसे को तैसा दोनों अपने घर लौट आये। सत्यनिष्ठ मित्र ने, जिसके साथ धोखा हुआ, अपने घर में अपने उस कपटी मित्र की ठीक उसी के आकार-प्रकारानुरूप एक प्रतिमा निर्मित करवाई, जिसे देखने पर लगे, मानो साक्षात् वह सदेह हो। उसने अपने घर में दो पालतू बन्दर रखे वह हर रोज उस प्रतिमा पर बन्दरों के खाने योग्य वस्तुएँ रख-देता। बन्दरों को खुला छोड़ देता। वे उस प्रतिमा पर चढ़ जाते, वहाँ रखे हुए खाद्य पदार्थ खा जाते, उस पर नाचते, कूदते, अठखेलियां करते। एक दिन की बात है, सच्चे मित्र ने कपटी मित्र के बालकों को अपने घर आमन्त्रित किया। उनको भलीभाँति भोजन कराया। भोजन कराकर उन्हें किसी गुप्त स्थान में छिपा दिया। काफी समय हो गया, बालक जब वापस घर नहीं पहुँचे, वह कपटी पुरुष बड़ा चिन्तित हुआ। बालकों की खोज करने हेतु वह अपने मित्र के आवास-स्थान पर आया । सत्यनिष्ठ मित्र ने अपने कपटी मित्र की प्रतिमा को उस स्थान से पहले ही हटा दिया था। अपने कपटी मित्र को कहकर कि जरा ठहरो, देखते हैं, उस स्थान पर बिठा दिया। बन्दरों को खुला छोड़ दिया। वे रोजाना के अभ्यस्त थे ही, किलकारियां मारते हुए उसके मस्तक पर चढ़ने लगे, नाचने लगे, कूदने लगे। वह बोला-"यह सब क्या है ? तुम क्या कर रहे हो ?" मित्र ने कहा- "अरे ! ये तुम्हारे प्यारे बालक हैं।" कपटी मित्र झल्लाता हुआ बोला-"अरे क्या कहते हो, बालक भी कभी बन्दर बने सुने हैं ?" Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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