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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग — सिंह और शशक : निग्रोध मृग जातक ६४३ नहीं भेज सकता । तू जाने, तेरी कठिनाई जाने, मैं क्या करूं, जाओ ।" शाखा मृग ने जब उस गाभिन मृगी पर दया नहीं दिखलाई, तो वह बोधिसत्व--- निग्रोध मृग - के पास पहुँची तथा वही बात कही, जो शाखा मृग से कही थी । निग्रोध मृग बोला- “अच्छा, तू चली जा, तेरी बारी टालने की व्यवस्था करूंगा ।" मृगी चली गई । गर्मिणी के बदले निग्रोध मृग निग्रोध मृग स्वयं धर्म - गण्डिका पर गया और उस पर अपना मस्तक रखकर लेट गया | पाचक आया। उसने देखा, राजा द्वारा अभय प्राप्त मृगराज गण्डिका पर अपना मस्तक टिकाये पड़ा है, क्या बात है ? वह तत्क्षण राजा के पास गया, राजा को स्थिति से अवगत कराया। राजा उसी समय रथ पर आरूढ़ होकर अपने परिजनवृंद के साथ वहाँ आया । निग्रोध मृग को वहाँ पड़ा देखा तो उससे पूछा - "सौम्य मृगराज ! मैंने तो तुझे अभय-दान दिया है, फिर तू स्वयं यहाँ क्यों आया ?" समस्त प्राणियों के लिए अभय-दान निग्रोध मृग बोला - "महाराज ! एक गर्भिणी मृगी की आज बारी थी । उसने मेरे पास आकर कहा कि उसके बच्चा हो जाने तक उसकी बारी किसी अन्य को दे दी जाए । 新 एक का मृत्यु - दुःख किसी दूसरे पर कैसे डालता ? अतएव मुझे यही उचित लगा कि यहाँ पड़ा है। इसमें इसीलिए मैं अपना जीवन उसे दे दूँ, उसका मरण अपने पर ले लूं और कोई संशय आप न करें ।" । राजा बोला – “स्वर्णोपम वर्णोपेत मृगराज ! मैंने तुम्हारे जैसा क्षमाशील, मंत्रीयुक्त तथा करुणाशील व्यक्ति मनुष्यों में भी नहीं देखा । मैं परितुष्ट । उठो, मैं तुम्हें और गर्भिणी मृगी को अभय-दान देता हूँ । "राजन् ! हम दोनों को तो अभय-दान प्राप्त हो जायेगा पर बेचारे अवशिष्ट मृग क्या करेंगे ?" स्वामी - "बाकी के मृगों को भी मैं अभय दान देता हूँ । “राजन् ! यों केवल उन मृगों को तो अभय प्राप्त हो जायेगा, जो उद्यान में हैं पर, बाकी के मृगों का क्या होगा ?" स्वामी- "मैं उनको भी अभय दान देता हूँ ।" "राजन् ! इस प्रकार मृग तो अभय प्राप्त कर लेंगे पर अन्य चौपाये प्राणी क्या करेंगे ?" स्वामी - "मैं सभी चौपायों को अभयदान देता हूँ ।" "1 "राजन् ! चौपाये प्राणी तो अभय हो जायेंगे किन्तु बेचारे पक्षी ? स्वामी - "पक्षियों को भी अभय-दान देता हूँ ।" "राजन् ! पक्षी तो अभय प्राप्त कर लेंगे किन्तु जलवासी जन्तु क्या करेंगे ?" स्वामी - " मैं जल में रहनेवाले प्राणियों को भी अभय-दान देता हूँ ।" यो बोधिसत्व राजा से सभी प्राणियों के लिए अभयदान की याचना की, राजा ने स्वीकार किया । बोधिसत्त्व उठे, राजा को पंच शीलों में संप्रतिष्ठ किया और कहा" राजन् ! धर्म का आचरण करो, न्यायपूर्ण कार्य करो। माता-पिता, पुत्र-पुत्री, ब्राह्मण Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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