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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग – सिंह और शशक : निग्रोध मृग जातक ६४१
भगवान् ने भिक्षुओं से कहा- - "मेरे सुयोग्य सुन्दर धर्म - कथित श्रावकों में अन्तेवासियों में कुमार काश्यप सर्वोत्तम है ।" यों कहकर भगवान् ने कुमार काश्यप को सर्वश्रेष्ठ पद प्रदान किया। कालान्तर में वम्मिक सूत्र सुनने पर कुमार काश्यप को अर्हत् पद अधिगत हुआ । उसकी भिक्षुणी माता ने भी विपश्यना भावना द्वारा — ध्यान-योग द्वारा अग्र- फला अर्हत् पद प्राप्त किया । कुमार काश्यप स्थविर बुद्ध शासन रूपी गगन में पूर्ण चन्द्र की ज्यों उद्योतित हुए ।
एक समय की बात है, भगवान् बुद्ध भिक्षाटन से लौटे, भोजन किया, भिक्षुओं को उपदेश दिया और गन्धकुटी में प्रविष्ट हुए । भिक्षु उपदेश ग्रहण करने के बाद अहर्निश आवासोपयोगी अपने-अपने स्थानों में गये । दिन व्यतीत हुआ । सायंकाल धर्म-सभा में एकत्र हुए । भिक्षु परस्पर वार्तालाप करने लगे – आयुष्मानो ! देवदत्त बुद्धत्व प्राप्त नहीं है । उसमें शान्ति, मैत्री एवं करुणा नहीं है । यही कारण है कि उसने क्षणभर में कुमार काश्यप स्थविर और स्थविरी मां को बहिष्कृत कर दिया । यों उनके धर्म-जीवन का विनाश ही कर दिया किन्तु सम्यक्सम्बुद्ध तो घर्मराज हैं, क्षमा मंत्री और करुणामय संपदा से समायुक्त हैं । उन्होंने उन दोनों को आश्रय दिया, कितना अच्छा किया। इस प्रकार कहते हुए वे भिक्षु भगवान बुद्ध के गुणों की प्रशंसा करते थे ।
भगवान् धर्म-समा में आये । आसन बिछा था। उस पर बैठे और पूछा - "भिक्षुओ ! यहाँ बैठे हुए तुम क्या वार्तालात करते थे ?"
भिक्षु बोले - "भन्ते ! आपके ही गुण-कथन में संलग्न थे ।"
भगवान् ने कहा – “भिक्षुओ! तथागत ने न केवल इस जन्म में ही वरन् पूर्व-काल में भी इन दोनों को आश्रय दिया था । "
भिक्षुओं ने भगवान् से पूर्व जन्म की बात प्रकट की अभ्यर्थना की। भगवान् ने उसका वर्णन यों किया
बोधिसत्व निग्रोध मृग रूप में
पूर्व समय का प्रसंग है, वाराणसी में राजा ब्रह्मदत्त राज्य करता था । बोधिसत्व उस समय मृग-योनि में उत्पन्न हुए । जन्म से ही उस मृग का रंग स्वर्ण जैसा था। उसके नेत्र मणि - गोलक सदृश थे । उसके सींग चाँदी के से वर्ण के थे । उसका मुख रक्त वर्ण की दुशालराशि जैसा था। उसके हाथों तथा पैरों के अग्रभाग ऐसे थे, मानो लाक्षा से रंजित हों । उसका पूँछ चमरी गाय के पूँछ के समान था । उसका शरीर घोड़े के बछेरे जितना था । वह पाँच सौ मृगों से परिवृत वन में विहार करता था । उसका नाम निग्रोध मृगराज था ।
वहाँ से अविदूर - अधिक दूर नहीं, कुछ ही दूरी पर एक अन्य मृग- यूथपति भी रहता था । उसका नाम शाखामृग था । उसका भी वर्ण स्वर्ण सदृश था ।
राजा की आखेटप्रियता
उस समय वाराणसी का राजा आखेट द्वारा मृगों का वध करने में बुरी तरह लगा था । मृग मांस के बिना वह भोजन ही नहीं करता था । वह आखेट में सहायता पाने हेतु समस्त निगमों तथा जनपदों के लोगों को उनका काम छुड़वाकर एकत्रित करता, उन्हें साथ ले आखेट के लिए जाता ।
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