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________________ ६४० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड:३ आर्य स्थविर देवदत्त बुद्ध नहीं हैं और न मैंने उनकी अनुयायिनी होकर ही प्रव्रज्या ग्रहण की है । मैं तो लोकाग्र, सम्यक् सम्बुद्ध-तथागत की अनुयायिनी होकर ही प्रव्रजित हुई हूँ। आप यह जानती ही हैं, प्रव्रज्या मुझे कितनी कठिनता से प्राप्त हुई है। इसका विलोप मत करो। मुझे अपने साथ लो, भगवान् बुद्ध के पास जेतवन चलो। भिक्षुणियों ने उसे साथ लिया। राजगृह से जेतवन पैंतालीस योजन दूर था। वे चलकर वहाँ पहुंचीं। उन्होंने भगवान् को प्रणाम किया, सारी घटना उन्हें निवेदित की। भगवान बद्ध ने विचार किया-यद्यपि इस भिक्षणी का गर्भ गहस्थ-काल का है, किन्तु, अन्य मतानुयायी जब इसे मेरे भिक्षुणी-संघ में देखेंगे तो कहेगे कि श्रमण गौतम देवदत्त द्वारा परित्यक्त भिक्षुणी को साथ लिये घूमते हैं । ऐसा प्रवाद न उठे, इसलिए इस विषय का परिषद में, जब स्वयं राजा भी उपस्थित हो, निर्णय किया जाना चाहिए। तदनन्तर एक दिन कोशल-नरेश प्रसेनजित्, ज्येष्ठ अनाथ पिण्डिक, कनिष्ठ अनाथ पिण्डिक, महा उपासिका विशाखा एवं विश्रुत महाकुलों को बुलवाया। सायंकाल चतुर्विध परिषद् एकत्र हुई । शास्ता ने स्थविर को संबोधित कर कहा- “उपालि! चतुर्विध परिषद्के मध्य इस कर्म का परीक्षण किया जाए।" उपालि ने कहा- भन्ते ! जैसी आपकी आज्ञा।" उपालि परिषद् के मध्य गया। अपने आसन पर बैठा। राजा की उपस्थिति में महा उपासिका विशाखा को वहाँ बुलवाया। उसे यह कार्य सौंपा, कहा-"विशाखे! यह तरुण भिक्षुणी अमुक मास, अमुक दिन प्रव्रजित हुई । तुम परीक्षण कर यथार्थ रूप में पता लगाओ कि इसका गर्भ इसके प्रवजित होने से पहले का है या बाद का।" विशाखा ने यह कार्य स्वीकार किया। उसने परीक्षा-विधि हेतु कनात तनवा दी। परीक्ष्य भिक्षुणी को कनात के भीतर ले गई। उसके हाथ, पैर, नाभि तथा उदर देखा, परीक्षण किया, महीनों और दिनों की गणना की। यों परीक्षा कर निश्चय किया कि इसके गृहस्थ-काल में यह गर्भ रहा है। विशाखा उपालि के पास आई तथा उन्हें वस्तुस्थिति से अवगत कराया। उपालि ने चतुर्विध परिषद् के मध्य उस भिक्षुणी को निर्दोष धोषित किया। इस प्रकार निर्दोष घोषित की गई भिक्षुणी ने भगवान् एवं भिक्षु-संघ को प्रणाम किया तथा वह भिक्षुणियों के साथ विहार में चली गई। यथासमय गर्भ का परिपाक हुआ। उस भिक्षुणी ने एक अत्यन्त प्रतापशाली पुत्र को जन्म दिया। एक दिन राजा भिक्षुणियों के विहार के पास से निकल रहा था। उसने शिशु का स्वर सुना। अपने अमात्यों से जिज्ञासा की। अमात्यों ने बताया-"राजन् ! उस युवा भिक्षुणी ने पुत्र को जन्म दिया है। यह उसी शिशु की आवाज है।" राजा बोला-"भिक्षुणियों को बच्चों का लालन-पालन करने में असुविधा होती है । अतः इस बालक का लालन-पालन हम करवायेंगे।" यों कहकर राजा ने उस बच्चे को अपने पास मंगवा लिया और राजकुमार के सदृश उसके लालन-पालन की व्यवस्था की। राजा ने बालक को यथावत् रूप में पालने-पोसने के लिए नटी स्त्रियों को सौंपा । नामकरण के दिन बालक का नाम काश्यप रखा गया। राजकुमार की ज्यों लालन-पालन होने के कारण वह कुमार काश्यप के नाम से विश्रुत हुआ। केवल सात वर्ष की आयु में उसने शास्ता के पास प्रव्रज्या ग्रहण की । बीस वर्ष की आयु पूर्ण होने पर उसने उपसम्पदा प्राप्त की। वह यथाकाल सुयोग्य धर्मोपदेशक हुआ। ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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