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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-सिंह और शशक : निग्रोध मृग जातक ६३६ आवृत जनों को यह शरीर लुभावना और मोहक प्रतीत होता है, पर, वास्तव में यह विष के वक्ष जैसा है. विपल दोषों से युक्त है, सब रोगों का आलय है, केवल दु:ख-पंज मात्र है। यदि संयोग से इस शरीर का आभ्यन्तर भाग बहिर्गत हो जाए तो निःसन्देह कौए और कत्ते उसे खा जाने को झपट पडें. उन्हें डंडों से भगाना पडे। यही कारण है. पण्डितों ने द्रष्टाओं ने, ज्ञानियों ने इसे दूषित गंध युक्त, अपवित्रतायुक्त, कूड़े-कर्कट जैसा बतलाया है, इस मलीमस शरीर की निन्दा की है। इसे वे ही प्रशंसनीय मानते हैं, जो अज्ञानी हैं। "आर्य पुत्र ! इस मलिन, नश्वर शरीर को आभूषित-विभूषित करने से क्या होगा। क्या वह वैसा ही नहीं होगा, जैसा गंदगी से आपूर्ण घट के बाहर सुन्दर चित्रांकन हो।" श्रेष्ठि-पुत्र ने अपनी पत्नी के ये वचन सुनकर कहा-"भद्रे ! यदि तुम्हें यह शरीर इतना दोष पूर्ण प्रतीत होता है, तो तू फिर प्रव्रज्या ग्रहण क्यों नहीं कर लेती ?" वह बोली- “यदि मुझे प्रवजित होने का सुअवसर मिले तो आज ही वैसा कर सकती हूँ।" उसका पति बोला- "बहुत अच्छा, मैं तुम्हें प्रव्रज्या ग्रहण करवाऊंगा।" श्रेष्ठि-पुत्र ने इस पुण्य अवसर के उपलक्ष्य में महादान-अत्यधिक दान दिया, महा सत्कार-महत् अभिनंदन, सम्मान का आयोजन किया। वह परिवार की अनेक महिलाओं के साथ अपनी पत्नी को भिक्षुणी विहार में ले गया। वहाँ देवदत्त की पक्षानुगा भिक्षुणियों के पास उसे प्रव्रज्या ग्रहण करवाई। प्रव्रज्या ग्रहण करने का जो उसका बचपन से संकल्प था, आज वह पूरा हुआ। वह अत्यन्त सन्तुष्ट हुई। ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, उसका गर्भ परिपक्व होता गया, बढ़ता गया। उसकी इन्द्रियों की आकृति में परिवर्तन आने लगा। हाथों, पैरों तथा पीठ में भारीपन आया। उसका उदर-पटल स्थूल होने लगा। भिक्षुणियों ने जब यह देखा तो उससे पूछा-"आर्य ! तू गर्भवती-जैसी प्रतीत होती है । कहो, क्या बात है ?" वह बोली-"आर्ये ! इस सम्बन्ध में मैं कुछ नहीं जानती, किन्तु, मेरा शीलआचार अक्षण्ण है-अखण्डित है।" वे भिक्षुणियाँ उसे देवदत्त के पास ले गईं और उससे पूछा- 'आर्य ! इस सत्कुलीन नारी ने बड़े प्रयत्न से अपने पति को सहमत कर प्रव्रज्या ग्रहण की, किन्तु अब ऐसा प्रतीत होता है, यह गर्भवती है। आर्य ! हमें नहीं मालूम, यह गर्भ इसके गृहस्थ काल का है या प्रव्रज्या ग्रहण करने के बाद का। हम अब क्या करें ?" देवदत्त बुद्ध-समग्र बोधयुक्त-ज्ञान युक्त नहीं था। क्षमा, मैत्री तथा करुणा का भी उसमें अभाव था। अतएव उसने सोचा-मैं इस नव प्रव्रजिता भिक्षुणी का वेश उतरवा दूं, अन्यथा लोग मुझे निन्द्य समगे । वे कहेंझेगे-देवदत्त की पक्षानुगा एक भिक्षुणी अपनी कुक्षि में गर्भ लिये फिरती है । देवदत्त उस ओर कुछ ध्यान ही नहीं देता, इस बात की उपेक्षा करता है। देवदत्त ने उपस्थित विषय पर गहराई से चिन्तन नहीं किया। पाषाण-खण्ड को जैसे उलटा दिया जाए, उसी प्रकार उसने कहा- “उसका भिक्षु-वेश उतरवा लो, उसको बहिष्कृत कर दो।" भिक्षुणियों ने उसका कथन सुना! वे उठी, प्रणाम किया और अपने विहार में चली गई। जब यह स्थिति उस तरुण भिक्षुणी के समक्ष आई तो उसने अन्य भिक्षुणियों से कहा ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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