SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 698
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६३८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड: ३ वह बोली-आर्य! इस शरीर में बत्तीस प्रकार की गंदगियाँ भरी हैं। इसे सुसज्जित, विभूषित करने से क्या। यह शरीर न तो देव द्वारा निर्मित है, न ब्रह्म द्वारा निर्मित है, न यह स्वर्ण-रचित है, न यह मणि रचित है, न हरिचन्दनमय है, न यह पुंडरीक, कमल उत्पल आदि से उत्पन्न हुआ है और न यह अमृतमय औषधि से आपूर्ण है । यह तो गंदगी से उत्पन्न हुआ है। मात-पित्र-संयोग के फलस्वरूप अस्तित्व में आया है। यह अनित्य है। भग्न होना, शीर्ण होना, नष्ट होना इसका स्वभाव है । यह तृष्णा-जनित है, यह श्मशान में वृद्धि करने वाला है---इसका अंतिम आश्रय श्मशान है। यह शोक , विलाप आदि का हेतु है। सब प्रकार के रोगों का घर है । दंड-कर्म-भोग में यह प्रवृत है। इसके भीतर गंदगी भरी है। इसके बाहर सदा गंदगी रिसती रहती है । यह कीटाणुओं का आवास है। मृत्यु ही इसकी परिणति है। सबको यह जैसा दीखता है, वैसा नहीं है । उसका स्वरूप यह है "अट्ठी - न्हारु - संयुत्तो, तच-मस-विलेपनो। छविया कायो पटिच्छन्नो, यथाभूतं न दिस्सति । अन्तपूरो उदरपूरो यकलस्स वत्थिनो। हृदयस्स पप्फासस्स, वक्कस्स पिहवस्स च ।। सिंघाणिकायखेलस्स, सेदस्स मेदस्स च । लोहितस्स लसिकाय, पित्तस्स च वसाय च। अथस्स नवहि सोतेहिं, असुचि सवति सब्बदा। अक्खिम्हा अक्खि गूथगो, कण्णम्हा कण्णगूथगो। सिंघाणिका च नासातो, मुखेन वमति एकदा। पित्तं सेम्हं च वमति, कायम्हा सेदजल्लिका ।। अयस्स सुसिरं सीसं, मत्थलुङ्गेन पूरितं । सुभतो ने मञति बालो, अविज्जाय पुरक्खतो । अनंत्तादीनवो कायो, विसरुक्खसमूपमो। आवासो सब्ब रोगानं, पुचो दुक्खस्स केवलो।। सचे इमस्स कायस्स, अन्तो बहिरतो सिया। दण्डं नूनगहेत्वान, काके सोणे च वारये ॥ दुग्गन्धो असुची कायो, कुणपो उक्करूपमो। निन्दितो चक्खूभूतेहि, कायो बालाभिनन्दितो ॥" यह शरीर अस्थियों और नाड़ियों का संयोग है । यह मांस के लेप से युक्त है। ऊपर चमड़ी का आवरण चढ़ा है। इसका वास्तविक रूप हमें दृष्टिगोचर नहीं होता। यह आन्त्र, आमाशय, यकृत, वस्ति, हृदय, फुप्फुस, वृक्क, प्लीहा, सिंघानिका, थूक, स्वेद, मेद, रक्त, लसिका, पित्त तथा वसा-चर्बी से परिपूर्ण है। इसके ऐसे नो स्रोत हैं, जिनसे नित्य गन्दगी झरती रहती है-जैसे आँखों से आँखों का मैल, कानों से कानों का मैल, नाक से नाक का मैल, मुख से कभी-कभी वमन, पित्त तथा कफ, देह से स्वेद-पसीना प्रवहणशील रहता है। इसका मस्तक छिद्रमय है । उसकी खोपड़ी के भीतर मज्जामय गूदा भरा है । अविद्या-अज्ञान से १. सत्तीपट्ठान सुत्त, मज्झिम निकाय ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy