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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग --मेघकुमार : सुन्दर नन्द ६३३ के अतिरिक्त और भी अनेक शाक्यवंशीय राजपरिवार के तरुण, किशोर प्रवजित हो गये हैं। भगवान् ने अपने सुकुमार राजकुमार राहुल तक को प्रवजित कर लिया है। महाराज शुद्धोधन की मृत्यु के अनन्त र महाप्रजापति गौतमी भी प्रव्रजित हो गई। सुन्दरी नन्दा के मन में आया-मेरे वंश के, राजपरिवार के लगभग सभी प्रमुख जब प्रव्रज्या ग्रहण कर चुके हैं। मेरे लिए अब घर में क्या रखा है ? मैं घर में रहकर अब क्या करूंगी? लावण्य की दुर्गत : जरा में परिणति - सुन्दरी नन्दा भी प्रवजित हो गई, भिक्षुणी बन गई, किन्तु, उसने यह प्रव्रज्या श्रद्धा से नहीं ली, प्रवजित पारिवारिक जनों के प्रति अपने प्रेम तथा ममत्व के कारण ली। उसे अपने अप्रतिम सौन्दर्य का अब भी गर्व था। उसमें वह आसक्त थी। भगवान् बुद्ध के समीप जाने में वह कतराती थी, झिझकती थी, क्योंकि वह जानती थी कि भगवान् बाह्य सौन्दर्य को सदोष बताते हैं। भगवान् बुद्ध समझते थे कि सुन्दरी नन्दा ज्ञान पाने की उपयुक्त अधिकारिणी है। अतएव उन्होंने महाप्रजापति गौतमी से कहा कि सभी भिक्षुणियों को सूचित करो, वे उपदेश लेने हेतु क्रमशः उनके समक्ष आएं। भिक्षुणियाँ आती गई, उपदेश लेती गई। जब सुन्दरी नन्दा की बारी आई तो उसने स्वयं न आकर अपनी प्रतिनिधि के रूप में एक दूसरी भिक्षुणी को भेजा। तथागत ने कहा-"कोई भी भिक्षुणी अपनी कोई प्रतिनिधि न भेजे, स्वयं आए।" बाध्य होकर सुन्दरी नन्दा भगवान् के समक्ष उपस्थित हुई । भगवान् ने अपने अलौकिक, विलक्षण योग-बल से उसे एक अद्भुत लावण्यमयी नारी के दर्शन कराये। सुन्दरी नन्दा उसका अभतपूर्व, अदष्टपूर्व लावण्य देखकर रह गई। कुछ ही क्षण बाद भगवान् ने उस परम रूपवती लावण्यमयी नारी का जरा-जर्जर रूप दिखाया। तत्प्रसूत दुर्दशामय दृश्य उपस्थित किया। सुन्दरी नन्दा एकाएक सिहर उठी। उसके मन पर आघात लगा । उसे जीवन की अनित्यता का अनुभव हुआ, दुर्निवार जरा का आभास हुआ, दुःख का साक्षात्कार हुआ, अपने सौन्दर्य का गर्व जाता रहा । उसका चित्त वैराग्य में संस्थित हुआ। भगवान् द्वारा नन्दा को उपदेश भगवान् बुद्ध ने जब यह देखा तो उसको निम्नांकित रूप में धर्मोपदेश दिया"नन्दा ! यह शरीर अशुचि-अपवित्र है, व्याधियों का समूह है-रोगों से परिव्याप्त है। तू इसका यथार्थ रूप देख । अपना चित्त एकाग्र कर भलीभाँति समाधि में अवस्थित होकर तू अशुभ भावना का चित्त में चिन्तन कर । देह की अशुभता, अशुचिता पर ऊहापोह करसुन्दरता की परिणति जरा-जर्जरता, क्षीणता और कुरूपता में है। अदर्शनीय, जुगुप्सनीय, घृणायोग्य इस नारी का रूप कुछ ही क्षण पूर्व अनुपम आभा से विभासित था। तुम्हारा भी शरीर ऐसी ही गुणधर्मिता लिये हुए है। इसके सौन्दर्य का जो परिणाम दोख रहा है, तेरे सौन्दर्य का भी वैसा ही परिणाम होगा। इसे भूलो मत, यह तो दुर्गन्धिता से भरा है, अपवित्रता से आपूर्ण है। इसकी स्वभावतः यही परिणति है । जिन्हें ज्ञान नहीं होता, वे ही इस शरीर को अभिनन्दन योग्य तथा प्रिय समझते हैं। "नन्दा ! तू अहर्निश तन्द्रारहित होकर-प्रमादशून्य होकर इस शरीर का अवेक्षण कर, इसके यथार्थ स्वरूप का दर्शन कर। ऐसा करने से तुम्हें वास्तविक ज्ञान प्राप्त होगा, ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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