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आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन
[खण्ड : ३
प्रव्रज्या सफल
भगवान् बुद्ध ने कहा-"जितात्मन् ! आज तुम्हारी प्रव्रज्या सफल हो गई है, क्योंकि तुमने अपने आप पर विजय प्राप्त कर ली है। आज तुम्हारा शास्त्र-ज्ञान सफल है, क्योंकि तुम्हारा जीवन शास्त्रानुगत धर्माचरणमय हो गया है । आज तुम्हारी बुद्धि उत्कृष्ट है, क्योंकि तुमने अपने द्वारा अपने को साध लिया है। जो तुमने प्राप्त किया है, तुम औरों को भी उसका लाभ दो। तुम नगर में जाओ, धर्म का उपदेश दो।"
तमसाच्छन्न जनों को पथ-दर्शन
"संसार में वही मनुष्य उत्तम से उत्तम है—सर्वोत्तम है, सर्वश्रेष्ठ है, जो उत्तम निष्ठामय सद् धर्म को प्राप्त कर अपने श्रम की परवाह न करता हुआ दूसरों को धर्म का पथदर्शन दे, धर्म द्वारा उन्हें शन्ति का मार्ग बताए ।
"स्थिरात्मन् ! तुमने अपना कार्य तो साध लिया। उसे छोड़कर अब दूसरों का कार्य साधा। अज्ञानमय अंधेरी रात में मटकते-हुए तमसाच्छन्न लोगों के मध्य ज्ञान का दीपक प्रज्वलित करो।
"तुम्हें ऐसा करते देख लोग विस्मित होकर कहने लगें-अहो, कितना आश्चर्य है, वह नन्द जो कभी रागासक्त था, कितना ऊँचा उठ गया है, विमुक्ति की चर्चा कर रहा है, दुःखों से छूटने का-मोक्ष का उपदेश दे रहा है।"
नन्द ने भगवान् की आज्ञा शिरोधार्य की। जैसा भगवान् ने बताया, वैसा ही किया, वैसी ही उत्तम फल-निष्पत्ति की।
सुन्दरी नन्दा द्वारा प्रव्रज्या
नन्द की पत्नी सुन्दरी नन्दा पति के वियोग में अत्यन्त दु:ख, शोक और व्यथा से जीवन बिताती रही । प्रतीक्षा की भी एक अवधि होती है। बहुत समय तक जब उसका प्रियतम नन्द वापस नहीं लौटा तो क्रमशः उसकी आशा के तन्तु ट ते गये। उसने देखा, उसके पति
१. इहोत्तमेभ्योऽपि मतः स तूत्तमो, य उत्तम धर्ममवाप्य नैष्ठिकम् । अचिन्तयित्वात्मगतं परिश्रम, शमं परेभ्योऽप्युपदेष्टु मिच्छति ॥ विहाय तस्मादिह कार्यमात्मनः, कुरु स्थिरात्मन् ! परकार्यमप्यथो। भ्रमत्सु सत्त्वेषु तमो वृतात्मसु, श्रुतप्रदीपो निशि धार्यतामयम् । ब्रवीतु तावत्पुरि विस्मितो जनः, त्वयि स्थिते कुर्वति धर्मदेशनाः । अहो बताश्चर्यमिदं विमुक्तये, करोति रागी यदयं कथा मिति ॥
-सौन्दर नन्द १८.५६-५८
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