________________
तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग-मेघकुमार : सुन्दर नन्द व्रत ढो रहे हो। तुम्हारा मन भीषण अब्रह्मचर्य से व्याप्त है । फिर इस बाह्य ब्रह्मचर्य से क्या सधेगा?
'यदि तुम सच्चा आनन्द चाहते हो तो अपना मन अध्यात्म से जोड़ो। प्रशान्त, निर्मल, आध्यात्मिक आनन्द के समान और कोई आनन्द नहीं है।'
"तुम्हारा मन स्वर्ग के काम-भोगों से अनवरत आहत है। क्या तुम नहीं सोचते, वहाँ की अवधि पूर्ण हो जाने पर, वहाँ के सुख-भोगों से च्युत हो जाने पर कितना दुःख होता है। वास्तव में स्वर्ग परिणाम-सरस नहीं है, परिणाम-विरस है, नश्वर है, मात्र एक विडम्बना है।" मन बदला : अप्सराएं मन से निकली
आनन्द द्वारा उद्बोधित होकर नन्द का मन बदला। उसका मन स्वर्ग में उलझा था, अब वह उस उलझन से छूट गया । जैसे, अप्सराओं को देखकर उसने अपनी प्रियतमा को विस्मृत कर दिया था, उसी प्रकार काम-भोगों की अनित्यता समझ कर उन अप्सराओं को अपने मन से निकाल दिया। उसके मन में संवेग-भव-वैराग्य का उद्रेक हुआ। वह कामराग से अब ऊँचा उठ गया। इन्द्रिय-संयम और वितर्क-प्रहाण का उपदेश
तथागत ने नन्द को जब ऐसी स्थिति में देखा, वे उससे बोले-"नन्द ! तुम्हारा मन विवेक-पूरित हो गया है । तुमने श्रेयस् का पथ अपना लिया है । तुम्हारा जन्म सार्थक है । आज तुमने जीवन का महान् लाभ अजित किया है। मैं जो चाहता था, उस लक्ष्य को साधने हेतु बल-पूर्वक मैंने तुमको अपनी ओर खींचा, मेरा प्रयत्न आज सफल हो गया है । मैं कृतार्थ हूँ और तुम भी कृतार्थ हो।"
तत्पश्चात् भगवान बुद्ध ने नन्द को शील तथा इन्द्रिय-संयम का विशेष रूप से उपदेश दिया, मध्यम प्रतिपदा का रहस्य समझाया, वितर्क-प्रहाण का मार्ग बतलाया, मंत्री एवं करुणा की गरिमा प्रकट की, आर्य-सत्यों की व्याख्या की।
चिर-अभ्यस्त वासना से विनिर्मुक्त
नन्द ने अत्यन्त श्रद्धा, विनय और आदर के साथ सुना, हृदयंगम किया और उनको प्रणाम कर साधना हेतु, आन्तरिक दोष-विनाश हेतु वह वन में चला गया। वहाँ योगाभ्यास में निरत हो गया। चिर-अभ्यस्त वासना से सर्वथा विनिर्मुक्त होने के लिए परम पवित्र, संवेग पूर्ण भावना से अनुप्राणित रहने लगा, सत् चिन्तन में लीन रहने लगा। आन्तरिक कालुष्य अपगत हो गया। निर्वेद की ज्योति जगमगा उठी। तत्पश्चात् वह कृतकृत्य होकर एक दिन भगवान् बुद्ध के पास आया। भक्ति-नत होकर उन्हें प्रणाम किया और कहा--"मैं पथभ्रष्ट था, आप जैसे परम तेजस्वी, ओजस्वी पथ-प्रदर्शक के उपदेश से मैं सन्मार्ग पर आरूढ हो गया हूँ।"
१. रिरंसा यदि ते तस्मादध्यात्मे धीयतां मनः। प्रशान्ता चानवद्या च, नास्त्यध्यात्मसमा रतिः।।
-सौन्दरनन्द ११.३४
____Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org