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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड:३
__ नन्द ने अप्सराओं को पाने का लक्ष्य लिये अपने को कठोर धर्माचरण में लगा दिया। अपने चंचल, दुन्ति चित्त का नियमन किया, इन्द्रियों का संयम किया। तन्मय भाव से संयम का पालन करते रहने से उसे बड़ी शान्ति का अनुभव होता था। किन्तु, उसके ऐसे परम पवित्र, उत्कृष्ट धर्माचरण का लक्ष्य ऊँचा नहीं था। वह स्वर्ग की अप्सराओं को पाने के लिए ही यह कर रहा था।
आनन्द का अनुरोध
__ आनन्द ने देखा- नन्द अपनी स्त्री की आसक्ति से छूट गया है। संयममय जीवन के नियम-परिपालन में सुदृढ़ है। वह नन्द के पास आया, उससे बोला-"आयुष्मन् ! तुमने इन्द्रियों का निग्रह किया, उन्हें जीता, नियन्त्रित किया, तुम स्वस्थ हो गये, नियमानुपालन में सुस्थिर हो गये। बहुत अच्छा हुआ, यह तुम्हारी उत्न म कुल-परंपरा के सर्वथा अनुरूप हुआ। पर, एक बात मैं तुमसे पूछना चाहता हूँ, क्योंकि मुझे एक सन्देह है । यदि तुम मुझे कथन योग्य समझते हो तो मैं तुमसे सानुनय अनुरोध करता हूँ, मुझे बतलाओ । मैं तुम्हारा मन दुखाने के लिए नहीं पूछ रहा हूँ, तुम्हारे श्रेयस् के लिए पूछ रहा हूँ। लोग कहते हैं कि तुम अप्सराओं को प्राप्त करने के लिए धर्म का आचरण कर रहे हो । क्या यह सत्य है या ऐसा कहने वाले तुम्हारा मिथ्या उपहास कर रहे हैं ? यदि यह सत्य है तो मैं इस रोग को दूर करने की औषधि तुम्हें बतलाऊं और ऐसा कहने वालों की धृष्टता है तो मैं उन्हें दोष दूं।"
आनन्द के मुख से निकले शब्दों द्वारा नन्द के हृदय पर एक हलकी-सी चोट पहुंची। वह चिन्तित हो गया। उसने लम्बी सांस छोड़ते हुए अपना मुंह नीचा कर लिया।
आनन्द ने उसके इंगित से उसका मानसिक संकल्प समझ लिया। वह उसे सन्मार्ग पर लाने के लिए उससे ऐसे अप्रिय वचन कहने लगा, जिनका परिणाम सुखद था।
"नन्द ! तुम्हारे चेहरे की भाव-भंगिमा से मैं समझ गया हूँ, तुम किस प्रयोजन से संयम तथा धर्म का आचरण कर रहे हो । जब मैं इस पर सोचता हूँ तो तुम पर हंसी आती है। तुम दया के पात्र प्रतीत होते हो।" भोग के लिए धर्माचरण : महज एक सौदा
"कामोपभोग के लिए तुम संयम, नियम का भार ढो रहे हो। यह तो लगभग वैसा ही है, जैसे कोई मनुष्य बैठने के लिए एक वजनदार पत्थर को अपने कन्धे पर रखे अपने साथ-साथ ढोए चले।"
"तुम उस व्यापारी के सदृश हो, जो लाभ अजित करने के लिए पण्य-माल खरीदता है, भाव बढ़ जाने पर बेच देता है। तुम्हारे द्वारा किया जाता धर्माचरण महज एक सौदा है। कितना आश्चर्य है, दुःख है, तुम्हारा ब्रह्मचर्य-पालन अब्रह्मचार्य के लिए है। तुम्हारा तपश्चरण सुख-भोग के लिए है । इससे शान्ति नहीं मिलती। धर्म सौदा नहीं है, वह एक साधना है, भोग-निरपेक्ष आनन्द, परम आनन्द पाने का मार्ग है।
"रोग के प्रतिकार में उपलभ्यमान सुख तथा परितोष पाने की कामना लिये जैसे कोई पुरुष रोग की आकांक्षा करे, उसी प्रकार का क्या तुम्हारा यह प्रयत्न नहीं है, जो विषय-तृष्णा के रूप में, तज्जन्य, कृत्रिम, अस्थिर सुख के रूप में दुःख का अन्वेषण कर रहे हो।
"नन्द ! तुम्हारा हृदय काम की अग्नि से दग्ध हो रहा है । तुम केवल अपनी देह से
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