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६२८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : ३ क्या इच्छा है ! मैं चाहता हूँ, तुम्हें धीरज बँधा सकू ।' भिक्षु के सहानुभूति पूर्ण शब्दों से नन्द को कुछ बल मिला । वह अपने हाथ से भिक्षु का हाथ थामे उसे वन में दूसरी ओर ले गया। वहाँ एक सुन्दर लता-मंडप था। दोनों वहाँ बैठ गये।
नन्द का सांस तेजी से चल रहा था; अत: बीच-बीच में कुछ रुकते हुए उस भिक्षु से कहा-"मुझे वनवास में कोई सुख नहीं मिलता। अपनी भार्या के बिना मेरा चित्त शान्त नहीं है । मेरी घर जाने की तीव्र उत्कंठा है।"
उस भिक्षु ने कहा - "नन्द ! तुम्हारा विचार ठीक नहीं है । तुम जिस जाल से निकल कर यहां आये, फिर उसी जाल में फंसना चाहते हो । संसार की नश्वरता तथा भोगों की क्षणभंगुरता के सम्बन्ध में तुम्हे इतनी बार समझाया गया है, समझते ही नहीं।"
मरणासन्न रोगी जैसे हितेप्सु चिकित्सक की बात नहीं सुनता, उसी प्रकार नन्द ने उस भिक्षु की बात नहीं सुनी।
भगवान् से निवेदन
वह भिक्षु हृदय का पारखी था। उसने समझ लिया, चैतसिक चंचलता तथा भोगोन्मुखता के कारण नन्द धर्म से विमुख है । उसे समझापाना मेरे लिए संभव नहीं है । यह सोच कर वह प्राणीमात्र के हिताकांक्षी, भाव-वेत्ता, तत्त्वज्ञ भगवान् बुद्ध के पास आया, उन्हें नन्द की मन:स्थिति निवेदित की—"नन्द भिक्षु के उत्तम व्रतों का त्याग कर देना चाहता है। वह अपनी भार्या को देखना चाहता है; अतएव उसकी वापस अपने घर लौटने की इच्छा है। वह निरानन्द है, बड़ा दुःखी है।" भगवान् द्वारा नन्द का हाथ पकड़े आकाश-मार्ग से गमन
भगवान बुद्ध ने यह सुना । वे नन्द का मोह नष्ट कर देना चाहते थे, उसका उद्धार करना चाहते थे। अत: अपने ऋद्धि-बल का सहारा लिये उन्होंने नन्द का हाथ पकड़ा और उसे लेकर वे आकाश में उड़ गये । आकाश-मार्ग से दोनों शीघ्र ही हिमालय पर पहुँच गये, जो हरे-भरे वृक्षों, कोमल लताओं, सरिताओं, सरोवरों एवं निर्भरों से सुशोभित था। जिनकी इन्द्रियाँ शान्त थीं, मन शान्त था, ऐसे मुनिगण द्वारा वह सेवित था।
कानी वानरी
नन्द ने चारों ओर अपनी दृष्टि दौड़ाई । उसकी नजर वहाँ पेड़ पर बैठी एक वानरी पर पड़ी, जो वानरों के समूह से भटक कर अकेली रह गई थी, जो एक आँख से कानी थी, बड़ी बदसूरत थी।
कानी वानरी और सुन्दरी नन्दा की तुलना
भगवान् ने कहा-"नन्द ! जरा बतलाओ, रूप-माधुरी में, सौन्दर्य में, भाव-विभ्रम में इस कानी वानरी और तुम्हारी प्रियतमा सुन्दरी नन्दा में कौन अधिक श्रेष्ठ है ?"
यों पूछे जाने पर नन्द के मुंह से हँसी छूट पड़ी-“भन्ते ! आप क्या पूछ रहे हैं ? कहाँ वह आपकी वधू परम सौन्दर्य प्रतिमूर्ति मेरी प्रियतमा सुन्दरी नन्दा और कहां कुरूप कानी बन्दरिया, जिसके बैठने से मानो पेड़ भी ग्लानिवश कष्ट पा रहा हो।"
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