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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-मेघकुमार : सुन्दर नन्द ६२७ नन्द द्वारा ऊहापोह वसन्त की शोभा बिखरी है। कोयलें मधुर स्वर से बोल रही हैं, पर, यह दूसरा भिक्षु मनोयोग पूर्वक शास्त्राध्ययन में लगा है। इनसे जरा भी प्रभावित नहीं होता। अवश्य ही इसकी प्रियतमा इसका चित्त आकृष्ट नहीं करती। सचमुच यह भिक्षु बड़ा स्थिर चेता है, श्लाघनीय है। मैं ऐसा नहीं कर सकता। मैं अपनी प्रियतमा के आकर्षण का उल्लंघन नहीं कर सकता । मैं ही क्या, बड़े बड़े ऋषि-मुनि भी ऐसा नहीं कर सके। इसलिए मैं अपने घर लौट जाऊंगा। क्योंकि जिसका चित्त ध्यान से, योग से, साधना से अन्यत्र भटकता रहता है, वह भिक्षु-वेष धारण किये रहे, वह सर्वथा अनुचित है। जो भिक्षा का पात्र लिये है, सिर मुंडाए है, गेरुए वस्त्र पहने हुए है, पर, जिसका मन उत्तेजित है, अधीर है, वह तो केवल देखने मात्र का चित्रांकित दीपक सदृश अयथार्थ भिक्षु जो घर से तो निकल गया है, पर, जिसके मन से काम-राग नहीं निकला, जो काषाय वस्त्र तो धारण करता है, पर, जिसके कषाय- चैतसिक मल-क्रोध, मान, माया, लोभ जैसे दोष अपगत नहीं हुए, जो भिक्षा का पात्र तो धारण करता है, किन्तु, जो उत्तम गुणों का का पात्र नहीं बना, वह भिक्षु का वेष धारण किये हुए भी सही माने में न भिक्षु है और न गृहस्थ ही है। उसका योग भी नष्ट हो गया तथा संसार भी नष्ट हो गया है। कहा जाता है, कुलीन व्यक्ति एक बार भी यदि भिक्षु-वेष धारण कर ले तो उसे नहीं छोड़ना चाहिए। यदि वह छोड़ता है तो यह अनुचित है, यह विचार भी संगत नहीं है। जिसके आदर्शों एवं सिद्धान्तों का पालन ही न करे, वैसे श्रमण-वेष को मात्र लोक-लज्जा से ढोये चलना न अपने प्रति न्याय है और न सिद्धान्त के प्रति ही न्याय है। अनेक ऐसे राजा हुए हैं, जो वन को छोड़कर वापस अपने घर चले गये; इसलिए ज्यों ही तथागत भिक्षा हेतु बाहर जायेंगे, मैं ये गेरुए वस्त्र यहीं छोड़कर अपने घर लौट जाऊँगा, क्योंकि चंचल चित्त और इस पवित्र वेष का कोई मेल नहीं है। एक भिक्षु द्वारा नन्द को समझाने का असफल प्रयास नन्द घर जाने की व्याकुलता में बड़ा उद्विग्न था। इतने में एक भिक्षु उसके पास आया। उसने मित्र-भाव से नन्द को कहा-"नन्द ! अपने मन की बात मुझे कहो। तुम्हारी १. पाणौ कपाल मवधाय विधाय मौण्ड्यं, मानं निधाय विकृतं परिधाय वासः । यस्योद्धवो न धृतिरस्ति न शान्तिरस्ति, चित्रप्रदीप इन सोऽस्ति च नास्ति चैव ।। -सौन्दरनन्द ७.४८ २. यो नि:सृतश्च न च निःसृतकामरागः, काषायमुदवहति यो न च निष्कषायः । पात्रंबिभर्ति च गुणैर्न च पात्रभूतो, लिग्ङ्ग वहन्नपि स नैव गृही न भिक्षुः॥ -सौन्दरनन्द ७.४६ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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