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________________ ६२६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : ३ का हित साधने के लिए उसे पकड़ कर अप्रिय औषधि देता है, उसी प्रकार मैं तुम्हारे भले के लिए अप्रिय, किन्तु, हितकर वचन कह रहा हूँ । जब तक यह जीवन विद्यमान है, मृत्यु दूर है, शारीरिक अवस्था योग विधि साधने में सक्षम है, तब तक अपनी बुद्धि को श्रेयस् में लगाओ, सत्कर्ममय बनो। " भगवान् बुद्ध द्वारा इस प्रकार उद्बोधित्, उत्प्रेरित किये जाने पर नन्द बोला- ... आपके वचन का पालन करूंगा ।" तब आनन्द नन्द को, जो भीतर ही भीतर छटपटा रहा था, वहाँ से ले गया । नन्द के नेत्र अश्रु-प्लावित थे। वह बड़ा विषण्ण था । आनन्द ने उसके मस्तक के छात्र जैसे विस्तीर्ण सघन, कोमल केश काटकर पृथक् कर दिये । उसे काषाय - गेरुएँ वस्त्र पहना दिये । न चाहते हुए भी उसे भिक्षु बना दिया । सुन्दरी नन्दा की व्यथा - उधर महल में उसकी पत्नी सुन्दरी नन्दा अत्यन्त व्यथित थी । उसके शोक का क्या कहना — वह बार-बार रोती, म्लान हो जाती - कुम्हला जाती, चिल्लाती - चीख पड़ती, म्लान हो जाती — ग्लानि से भर जाती, पगली की ज्यों इधर-उधर फिरने लगी, खड़ी हो जाती, विलाप करने लगती, ध्यान करने लगती - कुछ सोचने लगती, कभी क्रोध से उन्मत्त हो जाती, गले में पड़ी मालाएँ खींच कर तोड़ डालती, मुंह को स्वयं ही काट लेती, अपने वस्त्र फाड़ डालती । ' रो-रोकर उसने अपनी आँखें सुजालीं । एकमात्र विलाप, विषाद, शोक और आक्रन्दन ही उसके पास रह गया था । वह अपने आपको नितान्त असहाय तथा अनाथ अनुभव करती थी । वह किंकर्तव्यविमूढ थी । गाड़ी के दो चक्कों के बीच भगवान् बुद्ध के आदेश से नन्द ने शास्त्र - विधि पूर्वक श्रमण का वेष तो धारण कर लिया, किन्तु, उसके चित्त में श्रामण्य टिक नहीं पाया। वह एक ओर काम सुख में आसक्त था, दूसरी ओर भगवान् बुद्ध के अनुशासन में बँधा था। वह अपने को गाड़ी के दो चक्कों के बीच में आया हुआ-सा अनुभव करता था । वह बार-बार याद करता था कि उसकी प्रियतमा ने डबडबाए नेत्रों से कितने स्नेह के साथ कहा था कि उसके विशेषक सूखने के पहले-पहले मैं उसके पास पहुँच जाऊं। जो स्थिति बनी, उसमें वह अब कितनी व्याकुल, आतुर और उद्विग्न होगी । पर्वत के निर्झर पर आसन लगाये यह भिक्षु निर्विकार भाव से ध्यान में रत है । प्रतीत होता है, इसका मन मेरी तरह किसी में आसक्त नहीं है; इसलिए यह अत्यन्त शान्त है । १. रुरोद मम्लौ विरुराव जग्लो, बभ्राम तस्थौ विललाप दध्यौ । चकार रोषं विश्वकार माल्यं, चकर्त वक्त्रं विचकर्ष वस्त्रम् ॥ Jain Education International 2010_05 — सौन्दर नन्द ६.३४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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