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तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-मेघ कुमार : सुन्दर नन्द भगवान द्वारा प्रदत्त पात्र नन्द के हाथ
नन्द ने सोचा-भगवान् को प्रणाम कर वापस अपने घर लौट जाऊँ, कमलपत्र सदृश सुन्दर, मृदुल ने त्रयुक्त सुगत ने उस पर अनुग्रह करने हेतु अपना पात्र उसके हाथ में पकडा दिया। नन्द हक्का-बक्का रह गया. कुछ समझ नहीं सका। बड़े भाई के प्रति. उस महान भाई के प्रति जो बुद्धत्व प्राप्त कर जगत में सर्वोपरि थे, उसके मन में अत्यधिक आदर था। अतः वह उनके प्रभाव से पात्र हाथ में लिये उनके पीछे-पीछे चला तो सही पर उसका मन घर में अटका था। वह चाहता था, किसी तरह यहाँ से छूट कर अपने घर चला जाऊं, ऐसा सोचकर वह मार्ग से कुछ दूर हटने लगा। बुद्ध से यह कब छिपा रहता । जिस मार्ग द्वारा नन्द चले जाने की कल्पना किये था, उन्होंने अपनी विशिष्ट ऋद्धि द्वारा उस मार्गद्वार को आवत्त कर दिया। वे जानते थे, नन्द का ज्ञान अभी मन्द है। उसका क्लेश-रज तीव्रता लिये है, उसके मन में सांसारिक भोगों के प्रति आसक्ति है, फिर भी उसमें मोक्ष-बीज प्रच्छन्न रूप में विद्यमान है। वह मोक्षका-निर्वाण का पात्र है । अतएव उन्होंने उसको विशेष रूप से अपनी ओर मोड़ने का प्रयास किया।
वैराग्य-प्रेरणा
नन्द प्रत्ययनेयचेता था । वह जिसे प्रत्यक्ष--आश्रय या आधार बना लेता, उसी में वह तल्लीन हो जाता। अब तक वह काम रागात्मक स्नेह-रस में तन्मय था, बुद्ध उसे दूसरा मोड देना चाहते थे. वे उसकी दिशा बदलना चाहते थे। उसे वैराग्य की ओर प्रेरित करना चाहते थे। एतदर्थ वे प्रयत्नशील थे। वे उसे विहार में ले गये थे। करुणापूर्ण दृष्टि से भगवान् ने उसकी ओर देखा, अपने चक्रांकित कर-तल से उसके मस्तक का स्पर्श किया। उन्होंने उससे कहा-सौम्य ! जब तक हिंस्र काल पास-नहीं आता, तब तक अपनी बुद्धि को शम में लगाओ। काम-भोग स्वप्न के समान निःसार हैं। मन बड़ा चंचल है। वह उस ओर दौड़ता जा रहा है, उसे रोको। जो योग के अभ्यास तत्त्व का साक्षात्कार कर लेता है, वह मृत्यु का त्रास नहीं पाता।
___ और भी बहुत प्रकार से भगवान बुद्ध ने नन्द को सत् शिक्षा प्रदान की। नन्द ने दुःख पूर्ण हृदय किन्तु उत्साह पूर्ण वाणी द्वारा उसे स्वीकार किया। नन्द की प्रव्रज्या
भगवान ने नन्द का प्रमाद, अज्ञान तथा अविवेक से उद्धार करने की भावना से उसके कल्याण की भावना से उसे धर्म का सत्पात्र समझते हुए आनन्द को कहा-नन्द को प्रव्रज्या ग्रहण कराओ। आनन्द ने नन्द को बुलाया। नन्द धीरे धीरे उसके पास आया और बोला-मैं प्रव्रज्या नहीं लूंगा । यह सुनकर आनन्द ने भगवान् बुद्ध को कहा-नन्द प्रव्रज्या लेना नहीं चाहता।
भगवान् बुद्ध नन्द से बोले-अरे अजितेन्द्रिय ! क्या तुम नहीं देखते, मैं तुम्हारा बड़ा भाई प्रवजित हुआ हूँ। मेरे पीछे और भी परिजन, शाक्यवंशीय तरुण क्षत्रिय प्रव्रजित हुए हैं अपने अनेक बन्धु-बान्धव घर में ही रहकर व्रतों की आराधना कर रहे हैं। शायद तुम्हें उन महान् राजर्षियों के सम्बन्ध में ज्ञान नहीं है, जिन्होंने हंसते हँसते सांसारिक सुखों को लात मारकर तपोभूमि का आश्रय लिया। उन्होंने शाश्वत शान्ति पाने की आकांक्षा से काम-भोगों की अवेहलना की। तुच्छा, निःसार, नगण्य काम-भोगों में उनकी असक्ति नहीं रही।
नन्द ! जो मैं तुम्हें कह रहा हूँ, उसे समझो। जिस प्रकार एक हितेप्सु वैद्य रोगी
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