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________________ ६२४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड:३ नन्द द्वारा भगवान् बुद्ध का अनुगमन नन्द ने अपनी पत्नी से कहा- मैं गुरु को प्रणाम करने, उन्हें अपनी भक्ति समर्पित करने जाना चाहता हूँ, मुझे जाने की आज्ञा दो।" सुन्दरी नन्दा ने कहा- "आप भगवान के दर्शनार्थ जाना चाहते हैं, मैं आपके इस पावन धर्म-कृत्य में बाधा नहीं डाल सकती। आर्यपुत्र ! जाएं, किन्तु, अत्यन्त शीघ्र लौट आएं। जब तक मेरे मुख का विशेषक-चन्दन,केसर, गोलोचन आदि सुरभित पदार्थों का चिह्नांकनमय लेप सूख न जाए, इतने शीघ्र लौट आएं, देर न करें।" नन्द ने कहा-"ऐसा ही करूंगा।" नन्द ने महल से प्रस्थान किया। भगवान् बुद्ध की भक्ति उसे आगे की ओर खींचती थी तथा भार्या का अनुराग उसे वापस महल की ओर खींचता था । अनिश्चयावस्था में वह न आगे ही बढ़ पाता था और न पीछे ही लौट पाता था।' मन में दृढ निश्चय कर वह महल से शीघ्र नीचे उतर आया । भगवान् अधिक दूर न चले जाएं, शीघ्र ही उनके दर्शन कर वापस घर लौट आऊं, अपनी प्रेयसी से मिलं, य सोचकर लम्बी-लम्बी डगें रखते हुए आगे बढ़ा। उसने देखा - भगवान कितने महान् हैं, कपिलवस्तु में भी, जो उनका पितृनगर है, न उन्हें सम्मान की कामना है, न सत्कार की। वे अभिमान से अतीत, सरल भाव से आगे बढ़ रहे हैं। लोगों की भारी भीड़ थी। सब के मन भगवान् के प्रति अत्यन्त श्रद्धा-नत थे। भीड़ के कारण नन्द भगवान् को प्रणाम नहीं कर सका। भगवान् को प्रणमन : निवेदन भगवान् तो सब कुछ जानते ही थे । नन्द घर जाने को उन्मुख था। उसे सन्मार्ग पर लाने हेतु, तदर्थ गृहीत करने हेतु भगवान् ने अपनी इच्छा से दूसरा मार्ग लिया, जो जनमुक्त था, एकान्त था। नन्द ने यह देखा । वह भगवान् के पास आया । उनको प्रणाम किया। विनम्रतापूर्वक झुक कर भगवान् से उसने निवेदन किया-"जब मैं अपने प्रासाद में ऊपर था, मैंने सना-भगवान मुझ पर कृपा कर पधारे, भगवान का कछ भी स्वा सत्कार नहीं हो सका। मुझे बड़ा दुःख हआ मैं सेवकों, परिचारकों को डांटता हआ जल्दी. जल्दी भगवान् की सेवा में यहाँ पहुंचा। साधु-प्रिय ! भिक्षुश्रेष्ठ! मुझ पर अनुग्रह कर, मेरी प्रियता हेतु आपका भिक्षा-काल मेरे घर पर व्यतीत हो, आप मेरे घर पर पधार कर भिक्षा ग्रहण करें।" नन्द ने अत्यन्त विनय,स्नेह तथा आदर के साथ अपने नेत्र ऊँचे उठाये, भगवान् की ओर देखा । भगवान् ने कुछ ऐसा इंगित किया, जिससे उसे प्रतीत हुआ, अभी भगवान् को आहार-कृत्य नहीं करना है। १. तं गौरवं बुद्धगतं चकर्ष, भार्यानुरागः पुनराचकर्ष । सोऽनिश्चयान्नापि ययौ न तस्थौ, तरंस्तरङगेष्विव राजहंस: ॥ -सौन्दरनन्द ४.४२ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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