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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-मेघकुमार : सुन्दर नन्द ६२३ धर्म-चक्र प्रवर्तन सिद्धार्थ ने सांसारिक सुखों की क्षणभंगुरता समझ कर शाश्वत शान्ति का पथ अपनाया। वे सर्वस्व त्याग कर साधना के पथ पर निकल पड़े। उन्होंने यथासमय अपना लक्ष्य पूरा किया। वे दिव्य ज्ञान से ज्योतिर्मय हो गये । शाश्वत, सम्पूर्ण, निरतिशय बोधयुक्तसम्यक्-सम्बुद्ध होकर उन्होंने सत्य का जो साक्षात्कार किया, बहुजन हिताय, बहुजन-सुखाय मानव-मेदिनी में उसे व्यापक रूप में प्रसृत करने हेतु धर्म-चक्र का संप्रवर्तन किया। भगवान् बुद्ध कपिलवस्तु में एक बार वे अपने विहार-क्रम के बीच अपनी जन्मभूमि, अपने पित नगर कपिलवस्तु में आये । लोग उनके दर्शनार्थ उमड़ पड़े, उनके विराट् दिव्य व्यक्तित्व से, धर्मोपदेश से प्रभावित हुए। भगवान बुद्ध द्वारा कपिलवस्तु में किये जाते धर्मोपदेश की बड़ी सुन्दर फल-निष्पत्ति हो रही थी। विशाल जन-समुदाय के साथ-साथ बुद्ध के ज्ञाति-जन, राज-परिवार के सदस्य भी उन द्वारा समुद्बोधित धर्म-सिद्धान्तों के प्रति आकृष्ट हुए। नन्द : काम-भोग-निमग्न उनका छोटा भाई नन्द काम-मोगों में निमग्न था, अपनी प्रियतमा जनपद-कल्याणी परम सुन्दरी नन्दा के साथ सुख-विहार में अनवरत निरत था। केवल काम-भोग ही उसका जीवन था। धर्म के प्रति उसका कोई आकर्षण नहीं था। भगवान् का नन्द के घर भिक्षार्थ आगमन : निर्गमन एक दिन भगवान् अपने भाई नन्द के घर भिक्षा के लिए आये। मुंह नीचा किये वीतराग-भाव से कुछ देर वहाँ खड़े रहे। नन्द महल के उपरी प्रकोष्ठ में अपनी प्रियतमा के साथ सुख-विलास में अभिरत था । सेवकों एवं परिचारकों ने भगवान् की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। भगवान् भिक्षा के बिना ही वहाँ से लौट गये। दासी द्वारा सूचना एक दासी प्रासाद पर खड़ी थी। वह खिड़की से नीचे देख रही थी। उसने भगवान् बुद्ध को वहां से खाली हाथ निकलते हुए देखा। उसे वह अच्छा नहीं लगा। अपने स्वामी के लिये भी उसे यह अगौरवास्पद प्रतीत हुआ । यह स्वयं भगवान बुद्ध की गरीमा से आकृष्ट थी। इसलिए उसके भक्ति-विनत हृदय पर इससे आघात लगा। वह तत्काल नन्द के पास आई और उनसे निवेदन करने की आज्ञा मांगी। नन्द ने कहा- 'बतलाओ, क्या कहना चाहती हो?" दासी वोली-"कुमार ! हम पर अनुग्रह करने हेतु भगवान् हमारे घर पधारे, किन्तु, यहाँ आदर पूर्ण वचन, आसन तथा भिक्षा—कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ। सूने वन की ज्यों यहाँ से खाली लौट गये।" नन्द ने ज्यों ही यह सुना कि महर्षि अपने घर में आकर बिना आदरसत्कार पाये वापस लौट गये, वह कांप उठा, बहुत खिन्न हुआ। ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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