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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : ३ अनभिरुचि, १३. मायामृषा-छलपूर्ण असत्य-भाषण तथा १४. मिथ्यादर्शन-शल्य-विपरीत यास्थारूप आन्तरात्मा में चुभनेवाला काँटा।" एक बार का प्रसंग है, भगवान् बुद्ध श्रावस्ती के अन्तर्गत जेतवन उद्यान में टिके थे। उन्होंने अपने शिष्यों को सम्बोधित कर कहा-"भिक्षुओ ! रंगरेज एक मलिन वस्त्र को यदि किसी रंग में रंगे तो उस पर अच्छा रंग नहीं चढ़ता, आभा नहीं आती। वह विवर्ण-बदरंग दीखता है । वही बात चित्त-मालिन्य के साथ है। यदि चित्त मल-व्याप्त है तो प्राणी की दुर्गति अनिवार्य है। उसे किसी भी प्रकार रोका नहीं जा सकता। चित्त-मल इस प्रकार हैं-१. विषम लोभ, २. द्रोह, ३. क्रोध, ४. पाखंड, ५. अमर्ष, ६. निष्ठुरता, ७. ईर्ष्या, ८. मात्सर्य, ६. वंचना-ठगना, १०. शठता, ११. जड़ता, १२. हिंसा, १३. मान, १४.. अतिमान, १५. मद तथा १६. प्रमाद।"२ एक समय का प्रसंग है, भगवान् तथागत राजगृह के अन्तर्गत घेणुवन उद्यान में प्रवास करते थे। उन्होंने श्रृगाल नामक वैश्यपुत्र को देखा उसके कपड़े भीगे थे। वह पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण-चारों दिशाओं को करबद्ध हो नमस्कार कर रहा था। भगवान् ने उससे पूछा- गृहपतिपुत्र ! तुम प्रातःकाल उठते ही दिशाओं को नमस्कार क्यों करते हो?" उसने कहा-"भन्ते ! मेरे पिता ने मरण-काल में मुझे कहा था-बेटा ! दिशाओं को नमस्कार करते रहना । भन्ते ! मैं अपने पिता के आदेश का पालन करता हूँ।" भगवान् बोले- गृहपतिपुत्र ! आर्य-धर्म में ऐसा नहीं है। वहां छः दिशाओं को इस प्रकार नमस्कार नहीं किया जाता।" "भन्ते ! बतलाएँ, तब कैसे नमस्कार किया जाता है ?" भगवान् ने कहा- "जब आर्य श्रावक के चार कर्म-क्लेश अपगत हो जाते हैं, वह चार पाप-स्थानों से विरत हो जाता है, जब वह छः भोगमूलक अपाय-मुखों-हानि-द्वारोंहानि के कारणों का सेवन नहीं करता। इस प्रकार वह चौदह प्रकार के पापों से विरत हो जाता है, छूट जाता है, तब वह छःों दिशाओं को आच्छन्न कर पुण्य-संभार से समावृत कर लोक पर परलोक पर विजय पा लेता है। मृत्यु के अनन्तर वह स्वर्ग जाता है। चार कर्म-क्लेश-१. प्राणातिपात-प्राणियों का वध, २. अदत्तादान-चौर्य, ३. परदारगमन-पर स्त्री-सेवन-काम दुराचरण तथा ४. मृषावाद । चार पाप-स्थान-१. छन्द या रागपथानुगत हो पापाचरण करना। २. देषपथानुगत हो पापाचरण करना। ३. मोह-पथानुगत हो पापाचरण करना। ४. भय-पथानुगत हो पापाचरण करना। १. उपासकद्दशा १.११ २. सुत्तपिटक, मज्झिम निकाय, वत्यसुत्तन्त १.१.७ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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