SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] तत्त्व fanta साधक का बड़ा महत्व है। बौद्ध धर्म में विनय शब्द इतना व्यापक है कि भिक्षु के समग्र आचार के लिए उसका प्रयोग हुआ है । त्रिपिटकों में विनय-पिटक के नाम का आधार यही है। दोनों ही परम्पराओं में वास्तव में विनय पर बड़ा जोर दिया गया है। जो श्रमण स्तंभ अहंकार, उद्दण्डता, क्रोध, माया - छल तथा प्रमाद के कारण गुरु से विलय की शिक्षा नहीं लेता — उनकी सन्निधि में रहता हुआ भी विनय नहीं सीखता, अहंकार, क्रोध आदि दुर्गुण प्रसूत अविनय उसको उसके ज्ञान आदि गुणों को उसी प्रकार नष्ट कर देता है, जिस प्रकार बांस का फल बांस को नष्ट कर देता है। फल आने पर बांस नष्ट हो जाता है, यह सर्वविदित है ? जो दुर्मेधा दुर्बुद्धि जन धर्म- जीवी - धर्मनिष्ठ आयों, अर्हतों के शासन के प्रति, धर्म के प्रति पापपूर्ण दृष्टि से प्रतिकोश प्रकट करता है- अविनय के कारण उसकी निन्दा करता है, जैसे बाँस अपने नाश के लिए फलता है, फल आने पर वह नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार अपने नाश के लिए उसका यह उपक्रम है ।" पाप-स्थान जैन दर्शन में अशुभ, जिसे बौद्ध दर्शन में अकुशल के नाम से अभिहित किया गया गया है, का विस्तार अनेकविध पाप-स्थानों के रूप में हुआ है। बौद्ध दर्शन में चित्त-मल के नाम से वे व्याख्यात हुए हैं। जैम-दर्शन प्रतिपादित पाप-स्थानों एवं बौद्ध दर्शन प्रतिपादित चित-मलों की तुलना करें तो दोनों में बहुत कुछ साम्य प्रतीत होता है । एक प्रसंग है, भगवान् महवीर ने चम्पा नगरी के अन्तर्गत पूर्णभद्र चैत्य के परिसर में आर्य, अनार्य सभी समुपस्थित जनों को अग्लान भाव से, बिना परिश्रान्ति अनुभव किये meteore पूर्वक धर्म देशना देते हुए पाप-विश्लेषण के सन्दर्भ में निम्नांकित अशुभ भावों का, कर्मों का आयाम किया - ०१. क्रोध, २. मान, ३. माया, ४. लोभ, ५. प्रेम अव्यक्त माया एवं लोभ प्रसूत मनोश, रोचक भाव, ६. द्वेष- अप्रकट मान तथा क्रोधजनित अमनोश, अप्रीतिकर - अवचिकर भाव, ७. कलह लड़ाई-झगड़ा, ८. अभ्यास्थान - झूठा दोषारोपण, ९. पैशुन्य गली, किसी के होते, अनहोते दोषों का पीठ पीछे औरों के समक्ष प्राकट्य, १० पर-परिवाद - दूसरों के भवगुणबाव- निम्बा, ११. रति- मोहनीय कर्मोदय वश असम में सुलभूत अभियचि १२. भरति- मोहनीय कर्मोदय के फलस्वरूप संयम में १. भा व कोहा व ममप्पमाया, reeenie free सो व तस्स फलं व कीयस्स सिक्थे । अनूदभावो, बहाय होइ ॥ २. यो सासन भरहतं, पटिक्कोसति तुम्मेची, फलानि कट्ठे कस्सेब, Jain Education International 2010_05 - दशकालिक सूत्र ९.१.१. भरियानं धम्मजीविनं । विर्दिठ मिस्साय पापिकं । असहष्णाय कुम्मति ॥ धम्मपद १२.५ ७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy