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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : ३ आवर्त हैं, वे गुण हैं, अर्थात् बन्धन गुणाश्रित हैं । वे शब्द आदि गुणों के कारण
होते हैं ।
ऊर्ध्व—ऊपर, अधस् - नीचे, तिर्यक्-तिरछे तथा सामने दृष्टिपात करता हुआ व्यक्ति रूप देखता है, शब्द सुनता है ।
ऊपर, नीचे, तिरछे तथा सामने अवस्थित वस्तुओं में मूर्च्छा - विमोह रखने वाला, आसक्ति रखने वाला उनमें मूच्छित - मोहित या आसक्त होता है ।
यह मूर्च्छा - आसक्ति या मोहावेश ही संसार है ।
जो पुरुष इनमें - सांसारिक भोगों में विषयों में अगुप्त है— अनियन्त्रित है, जिसकी इन्द्रियां तथा मन असंयत है, वह अनाज्ञप्त है— धर्मशासन की मर्यादा के बहिर्भूत है ।
जो पुनः पुनः गुणों का - शब्द, रूप, गन्ध, रस तथा स्पर्श का आस्वाद लेता है, तज्जनित भोगों में लिप्त रहता है, वह वक्र- समाचार - विपरीत आचरणशील है, असंयत है, प्रमत्त है - प्रमादयुक्त है ।"
मिक्षुओ ! काम के हेतु - अपनी भोगमय कामनाओं, एषणाओं को पूर्ण करने के लिए कुछ व्यक्ति काया से - शरीर से दुश्चरित - पापकृत्य, बुरे कर्म करते हैं, बचन से पापकृत्य करते हैं तथा मन से पाप कृत्य करते हैं ।
यों वे शरीर द्वारा, वाणी द्वारा, मन द्वारा पापाचरण कर, देह छोड़कर अपाय -- दुर्गति में विनिपतित होते हैं - गिरते हैं, जाते हैं, निरय में-नरक में जाते हैं, पैदा होते हैं । काम - निदान ही — काम भोग के कारण ही, उनके परिणामस्वरूप ही वे अनेक जन्मों में अत्यधिक दुःख पाते हैं । जगत् का सारा जंजाल, संघर्ष, काम-भोग स्वायत्त करने के लिए ही है । " भगवान् तथागत ने सुनक्खत्त लिच्छवि पुत्र को सम्बोधित कर कहा - " - "सुनक्खत्त ! पाँच काम -गुण हैं--यक्षुविज्ञेय — नेत्रों द्वारा जानने योग्य, अनुभव करने योग्य, देखने योग्य, इष्ट रूप, श्रोत्र - विज्ञेय - कानों द्वारा जानने योग्य, सुनने योग्य इष्ट शब्द, घ्राण-विज्ञेय - नासिका द्वारा जानने योग्य सूंघने, योग्य इष्ट गन्ध, रसन- विज्ञेय - - जिह्वा द्वारा जानने योग्य, आस्वाद लेने योग्य इष्ट रस तथा देह-त्वग्-विज्ञेय - शरीर द्वारा, त्वचा द्वारा जानने योग्य, अनुभव करने योग्य इष्ट स्पष्टव्य — स्पर्शगम्य प्रिय भोग ।
अविनय से विनाश
धर्म को विनयपूल कहा गया है। विनय आत्मा का पवित्र भाव है, ऋजुभाव है, सहजावस्था है । उसके कारण अन्यान्य सभी गुण सम्बंधित होते हैं। जिस साधक में विनय का अभाव है, वह साधना में प्रगति कर पाए, यह कदापि सम्भव नहीं । इतना ही नहीं, अविनय से उसका पतन हो जाता है, ज्ञान, शील आदि गुण नष्ट हो जाते हैं । जैन धर्म में
१. आचारांग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कन्ध, प्रथम अध्ययन, पंचम उद्देशक, सूत्र ४१
२. मज्झिमनिकाय, महादुक्खक्खन्ध १.२.३
३. मज्झिमनिकाय, सुनक्खत्त सुत्तन्त ३.१.५
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