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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ]
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उत्तम जातीय, नियंत्रित — सधे हुए घोड़े के ज्यों निगृहीत करता हूँ - उस पर काबू
पाता हूँ ।"
यह चित्त स्पन्दनशील है— चंचल है, चपल है— अस्थिर है, दुरिक्ष्य है - इसे देख पाना - ठीक से समझ पाना कठिन है। यह दुनिवार्य है-इसे निवारित - निगृहीत करना मुश्किल है । प्रज्ञाशील पुरुष इसे वैसे ही सीधा करता है - निगृहीत करता है, नियन्त्रित करता है, जैसे बाण बनाने वाला बाण को सीधा करता है । २
तत्त्व
मनुष्य को चाहिए, वह दैहिक चंचलता -- दुराचार - दुष्कृत्य से अपना परिरक्षण करे, अपने को बचाए । देह से संवृत - संवरयुक्त रहे- संयत रहे । दहिक दुश्चरित - दुराचरण का परित्याग कर सुचरित का - सदाचार का परिपालन करे ।
दैहिक की ज्यों वाचिक चंचलता - दुराचार - दुष्कृत्य से वह अपने को बचाए । वाणी का संयम करे । वाचिक दुश्चरित का परित्याग कर वाचिक सुचरित का परिपालन करे । वह मानसिक दुष्कृत्य से अपने को बचाए । मन का संयम करे । मानसिक दुश्चरित का परित्याग कर सुचरित का परिपालन करे ।
जो धीर पुरुष देह से संवृत- संयमयुक्त हैं, वाणी से संयमयुक्त हैं, मन से संयमयुक्त हैं, वे सुपरिसंवृत हैं, सम्पूर्णत: संयमी हैं ।
काम-भोग
काम-भोगों से मूर्च्छा या मोह उत्पन्न होता है। उससे वैषयिक आसक्ति बढ़ती है । व्यक्ति अपना भान भूल जाता है । फलतः वह मानसिक, वाचिक तथा कायिक पापों में लिप्त होता है । एषणाओं का जगत् बड़ा विशाल है, जिसकी परिपूर्ति हेतु यह सब करना होता है, जो तत्त्वत: परिहेय है ।
जो गुण हैं- शब्द, रूप, गन्ध, रस एवं स्पर्श हैं, वे आवर्त हैं—बन्धन हैं, संसार है ।
१. मणो साहसिओ भीमो, दुट्ठस्सो परिधावई ।
तं सम्मं तु निगिण्हामि, धम्मसिक्खाइ कंथगं ॥
- उत्तराध्ययन सूत्र २३.५८ २. फन्दनं चपलं चित्तं, दुरक्खं दुन्निवारयं । उजुं करोति मेधावी, उसुकारो व तेजनं ॥
— घम्पपद ३.१ ३. कायप्पकोपं रषखेय्य, कायेन संवृतो सिया । कायदुच्चरितं हित्वा कायेन सुचरितं चरे ॥ वचीपकोपं रक्खेय्य, वाचा य संवृतो सिया । वची दुच्चरितं हित्वा, वाचा य सुचरितं चरे ॥ मनोपको रक्खेय्य मनसा संवृतो सिया । मनोदुच्चरितं हित्वा मनसा सुचरितं चरे । कायेन संवृता धीरा, अथो वाचा य संवृता । मनसा संवृता धीरा, ते वे सुपरिसंवृता ।।
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- धम्मपद १७.११.१४
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