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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : ३ "भिक्षुओ ! विद्या ही पहला कारण है, जिससे कुशल धर्मों की - पुण्य कृत्यों की उत्पत्ति होती है । वैसा पुरुष असत् कार्य करने में लज्जाशील होता है, वह पाप भीरु होता है, उसे पापाचरण करते भय लगता है, वह वैसा करते सकुचाता है । ४ “भिक्षुओ ! विद्याप्राप्त - अधीत विद्य - ज्ञानयुक्त पुरुष की दृष्टि सम्यक् — यथार्थ या सही हो जाती है । उसके फलस्वरूप उसके संकल्प - विचार भी सम्यक् होते हैं । सम्यक् संकल्पयुक्त पुरुष की वाणी सम्यक् होती है । जिसकी वाणी सम्यक् होती है, उसके कर्मान्त सम्यक् होते हैं । सम्यक् कर्मान्त सहित पुरुष की आजीविका सम्यक् - न्याय-नीति- पूर्ण होती है । सम्यक् आजीविकायुक्त पुरुष सम्यक् व्यायाम संपन्न होता है । सम्यक् व्यायामयुक्त पुरुष की स्मृति सम्यक् होती है । सम्यक् स्मृति से सम्यक् समाधि उत्पन्न होती है ।"" दुःखवाद यदि गहराई से चिन्तन किया जाए, तो जगत्, जिसे लोग सुखमय मानते हैं, जहाँ बने रहने के लिए कुछ भी करते नहीं झिझकते, वस्तुतः दुःखमय है । उसमें सुख नहीं है । जो सुख दीखता है, वह सुख का कल्पित आभास है, मृगमरीचिका है । जन्म दुःख है, जरा – वृद्धावस्था दुःख है, रोग दुःख है, मृत्यु दुःख है । बड़ा अचरज है, यह सारा संसार ही दुःखमय है, जहाँ प्राणी क्लेश - दुःख पाते हैं । जाति - जन्म लेना दुःख है, जरा दुःख है, व्याधि-- रुग्णता दुःख है और मृत्यु दुःख है दुःसाहसी मन : चंचल चित्त जीवन के प्राय: समग्र कार्य-कलापों का मुख्य आधार मन है । व्यक्ति जो कुछ करता है, उसका सबसे पहले मन में एक चित्र जैसा प्रारूप उत्पन्न होता है । उसके अनुसार वह अग्रसर होता है । चित्त अपने नियन्त्रण से बाहर न चला जाए, प्रत्येक विवेकशील व्यक्ति को इसका ध्यान रखना आवश्यक है । स्वच्छन्द, उच्छृंखलचित्त बड़े से बड़ा बिगाड़ कर डालता है । यह मन बड़ा दुःसाहसी है, भयंकर है । यह दुष्ट - उद्दण्ड, अनियंत्रित घोड़े के ज्यों है, जो बेतहाशा भागता है। धर्म-शिक्षा द्वारा-धर्म-तत्त्व को हृदयंगम कर उसे ( मन को ) १. संयुत्त निकाय अविज्जा सुत्त ४३.१.१ ( दूसरा भाग ) २. जन्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगाणि मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कोसंति जंतवो ॥ ३. जातिपि दुक्खा जरापि व्यधिपि दुक्खा मरणं पि Jain Education International 2010_05 — उत्तराध्ययन सूत्र १६.१६ दुक्खा, दुक्खं । - महावंश १.६.१६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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