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________________ mm तत्त्व : माचार : कथानुयोग] तत्त्व करने नहीं जाऊंगा-वह मुक्त नहीं हो सकेगा, दुःख से छूट नहीं सकेगा।" पुरुषार्थ, परिश्रम एवं उद्यम की सार्थकता तभी है, जब व्यक्ति अज्ञानमुक्त हो, शानयुक्त हो। अज्ञानपूर्वक किये जाते कर्मों की फल-निष्पत्ति कमी हितावह नहीं होती; क्योंकि अज्ञानी सत्, असत् में, शुभ, अशुभ में कोई भेद नहीं कर पाता। पहले ज्ञान है---ज्ञान अपेक्षणीय है, तत्पश्चात् दया-अहिंसा आदि सत्कार्य फलित होते हैं । अज्ञानी-यथार्थ ज्ञान से शून्य पुरुष क्या कर पायेगा । वह श्रेयस्-पुण्य तथा पाप को नहीं जानता, उनका भेद ही नहीं कर पाता। जैसे एक जन्मान्ध पुरुष, हाथ पकड़े लिये चलने वाले के अभाव में कभी ठीक रास्ते पर कदम रखता है, कभी गलत रास्ते पर कदम रखता है, उसी प्रकार अज्ञानी पुरुष पथदर्शक-प्रबोधयिता के अभाव में कभी पुण्य करता है, कभी पाप करता है। यों वह अस्तव्यस्त, अव्यवस्थ होता है। एक समय का प्रसंग है, भगवान् तथागत. श्रावस्ती नगरी में उपासक अनाथपिण्डिक के बगीचे में टिके थे। भगवान् ने वहाँ भिक्षुओं को अपने पास बुलाया तथा उन्हें संबोधित कर कहा- भिक्षुओ ! अविद्या-अज्ञान ही वह पहला कारण है, जिससे अकुशल धर्मों-पापकृत्यों की उत्पत्ति होती है। उसी के कारण पुरुष असत् कार्य करने में अह्री-लज्जाशून्य होता है, अप त्रय-लज्जाप्रसूत भीतिरहित होता है-बुरे काम करते जरा मी सकुचाता नहीं। "भिक्षुओ ! जो पुरुष अविद्या-ग्रस्त है, अज्ञ है-ज्ञान रहित है, इसकी दृष्टि में मिथ्यात्व उत्पन्न हो जाता है, वह मिथ्यादृष्टि हो जाता है। जो मिथ्या दृष्टि होता है, उसके मन में मिथ्या संकल्प, असद् विचार उत्पन्न होते हैं। "जिसके संकल्प मिथ्या होते हैं, उसकी वाणी में भी मिथ्यात्व व्याप्त हो जाता है। जिसकी वाणी मिथ्यात्वयुक्त होती है, उसके कर्मान्त मिथ्या हो जाते हैं। "जिसके कर्मान्त मिथ्या होते हैं, वह मिथ्या-आजीव होता है। वह अपनी आजीविका असत-अप्रशस्त साधनों द्वारा चलाता है। "जिसकी आजीविका मिथ्यात्व पर आश्रित होती है, उसके मिथ्या व्यायाम उत्पन्न होता है। "जो मिथ्या व्यायामयुक्त होता है, उसकी स्मृति मिथ्यात्व-संलग्न हो जाती है। मिथ्या-स्मृति-युक्त पुरुष के मिथ्या समाधि होती है। १. नाहं गमिस्सामि पमोचनाय कथंकथी द्योतक कञ्चि लोके। -सुत्तनिपात ६०.४ २. पढयं नाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सत्वसंजए। अन्नाणी कि काही, किं वा नाही सेयपावगं ।। -दशवकालिक सूत्र ४.१० ३. यथापि नाम जच्वंधो, नरो अपरिनायको। एकदा थाति मग्गेन, कुमग्गेनापि एकदा ।। संसारे संसरं बालो, तथा अरिनायको । करोति एकदा पुञ्वं, अपुञमपि एकदा ॥ -विसुद्धिमग्ग १७.११६ ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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