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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-मेघकुमार : सुन्दर नन्द ६१६ रात्रि में भी जब अत्यधिक वष्टि हुई, तुम वहाँ गये, घास, पेड़, पौधे, लताएं आदि उखाड़ कर, फेंक कर उसे साफ किया । तुम उस क्षेत्र में विचरण करने लगे। अत्यन्त हिममय, शीतमय हेमन्त ऋतु व्यतीत हुई। ग्रीष्म ऋतु आई । बड़ी भयंकर गर्मी थी। सब कुछ सूख गया। प्यास के मारे पशु इधर-उधर भटकने लगे। दावानल : खरगोश पर अनुकम्पा ग्रीष्म ऋतु तो थी ही, वन में आग लग गई। तेज हवा चलने लगी। दावाग्नि चारों ओर फैल गई। सब ओर भय परिव्याप्त हो गया। हे मेघ !तुम दावाग्नि की लपटों से घिरने लगे। भय भीत हो गये । दावाग्नि से रक्षा हेतु पहले तुमने घास आदि हटा कर जो मण्डल बनाया था, वहाँ जाने का विचार करने लगे । बहुत से हाथियों, हथ नियों आदि के साथ उस ओर दौड़े। वहाँ पहले ही दावाग्नि से बचने के लिए बहुत से सिंह, बाघ, भेड़िये, चीते, भालू, शरम, गीदड़, बिलाव, कुत्ते, सुअर, खरगोश, लोमड़ी आदि अनेक जानवर घबराकर आ धंसे थे, तुम वहाँ पहुँचे और जहाँ थोड़ी जगह मिली, वहीं टिक गये । कुछ देर बाद तुमने देह खुजलाने के लिए अपने एक पैर को ऊँचा उठाया। उसी समय अन्य बलवान् प्राणियों की धक्कापेल से एक खरगोश उस खाली हुई जगह में आ बैठा। तुमने पैर से देह खुजलाने के बाद नीचे देखा तो वहाँ खरगोश दिखाई दिया। पैर नीचे रखने से खरगोश मर जायेगा, यह सोचकर तुमने अनुकम्पा से प्रेरित होकर अपना पैर ऊँचा अधर उठाये रख।। अनुकम्पा के कारण तुम्हारा संसार परीत-परिमित हुआ तथा तुमने मनुष्य का आयुष्य बाँधा । वह दावाग्नि ढाई रात दिन तक उस वन को जलाकर शान्त हो गई। वे पशु, प्राणी जो दावाग्नि से बचने के लिए उस मण्डल में टिके थे, दावाग्नि के शान्त हो जाने पर वहाँ से बाहर निकले । वे बहुत भूखे-प्यासे थे, भोजन-पानी की खोज में भिन्नभिन्न दिशाओं में चले गये। विपुल वेदना : पित्त-ज्वर : अवसान "मेघ ! उस समय तुम बहुत दुर्वल, बहुत परिश्रान्त, भूखे-प्यासे, दैहिक शक्ति से हीन चलने-फिरने में अक्षम एक ठूठ की ज्यों स्तब्ध रह गये, जड़वत् हो गये। मैं तेजी से चला चलूं, यों सोचकर तुमने अपने ऊपर किये पैर को फैलाया । धड़ाम से भूमि पर गिर पड़े। तुम्हारा शरीर विपुल वेदना युक्त हो गया। तुम्हें पित्त-ज्वर हो गया। सारा शरीर जलने लगा। तुम तीन रात-दिन तक इस विषम वेदना को भोगते रहे । अन्त में सौ वर्ष का अपना आयुष्य पूर्ण कर तुमने शरीर छोड़ा। यहाँ जम्बूद्वीप के अन्तवर्ती भारत वर्ष में राजगृह नगर में राजा श्रेणिक की रानी धारिणी की कोख से पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए । युवा हुए। विरक्त हुए। सब कुछ छोड़कर, गृह त्याग कर भिक्षु हुए। उत्प्रेरणा ____ "जरा सोचो, जब तुम हाथी के रूप में थे, तुम्हें सम्यक्त्व रूपी रत्न प्राप्त नहीं था, उस समय भी तुमने अनुकम्पा-वश अपना पैर अधर में ही रखा, उसे नीचे नहीं रखा। इस ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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