________________
६१८
आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन
[ डण्ख : ३
स्मरण हो आया । वह क्रुद्ध हो गया । तुम्हारे पास आया। उसने मूसल जैसे तीक्ष्ण दाँतों से तुम्हारी पीठ पर तीन बार घोर प्रहार किया। तुम्हारी पीठ क्षत-विक्षत हो गई । इस प्रकार वह अपना प्रतिशोध लेकर पानी पीकर, जिधर से आया था उधर ही चला
गया ।
"मेघ ! यों प्रहार किये जाने पर तुम्हारे शरीर में बड़ी पीड़ा उत्पन्न हुई । तुम्हें जरा भी चैन नहीं था । शरीर, मन और वचन - तीनों उससे व्याप्त थे । वह पीड़ा बहुत ही कठोर, दारुण और असह्य थी । उसके कारण तुम्हारे शरीर में पित्त ज्वर हो गया । जलन लग गई । तुम्हारी दशा बहुत खराब हो गई । सात दिन-रात तुमने वह असह्य वेदना भोगी, आर्त्तध्यान में रहे । तुम्हारी आयु १२० वर्ष की थी । मरकर तुम इसी जम्बूद्वीप के दक्षिणार्ध भरत में गंगा महानदी के दक्षिणी तट पर विन्ध्याचल पर्वत के निकट एक हाथी के रूप में उत्पन्न हुए। तुम क्रमश: बड़े हुए, युवा हुए, हाथियों के यूथपति के मर जाने पर उस यूथ के अधिपति हुए । वनचरों ने तुम्हारा नाम मेरुप्रभ रखा । तुम चार दाँतों से युक्त, सुन्दर, परिपूर्ण अंगों से सुशोभित हस्तिरत्न थे । तुम सात सौ हाथियों के यूथ के अधिपति, स्वामी तथा नायक थे ।
गजयूथपति प्रभ
"एक दिन की बात है, गर्मी की मौसम थी, जेठ का महीना था । वन में आग लग गई। दावाग्नि की लपटों से वन- प्रदेश जलने लग गये। दिशाए धुएँ से भर गईं। तुम बहुत भयभीत और व्याकुल हो गए । बेतहाशा भागने लगे । बहुत से हाथियों और हथनियों से घिरे हुए एक दिशा से दूसरी दिशा में दौड़ने लगे ।
- निर्माण
मण्डल -
"हे मेघ ! वन की उस दावाग्नि को देखकर तुम्हारे मन में अन्तर्मन्थन होने लगा । तुम्हें लगा ऐसी अग्नि मैंने पहले भी देखी है। अपने विशुद्ध मनः परिणामों से तुम्हें जाति- स्मरण - ज्ञान हो गया । तुम्हें अपना पूर्व भव याद आया कि तुम किस प्रकार अपने शत्रु हाथी द्वारा प्रताड़ित हुए, दुःख पूर्वक मरे और वर्तमान भव में चार दाँत युक्त मेरुप्रभ नामक हाथी के रूप में उत्पन्न हुए। फिर तुमने सोचा कि दावाग्नि से बचाव के लिए इस समय महानदी गंगा के दक्षिण तट पर विध्याचल की तलहटी में मुझे अपने यूथ के साथ एक बड़ा मण्डल या घेरा बना लेना चाहिए। तदन्तर तुमने वर्षाकाल में खूब वृष्टि हो जाने पर गंगा महानदी के समीप हाथियों, हथनियों से परिवृत होकर एक योजन विस्तार का बड़ा मण्डल बनाया । उस भू-भाग में घास वृक्षों के पत्ते, काँटे, पौधे, बेलें आदि जो भी थे, उन्हें वहाँ से हटाकर उस स्थान को साफ किया । तुम उसी मण्डल के समीप गंगा महानदी के दक्षिणी किनारे, विध्यांचल पर्वत की तलहटी में विहार करने लगे ।
मण्डल का परिष्कार
"कुछ समय व्यतीत हुआ। दूसरी वर्षा ऋतु आई । खूब वर्षा हुई । तुम मण्डल के स्थान पर गये । दूसरी बार मण्डल को साफ किया, ठीक किया । इसी तरह अन्तिम वर्षा -
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org