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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग -- मेघकुमार : सुन्दर नन्द ६१७ वे मेरा कुछ भी आदर नहीं करते । तुमने वह रात नरक की ज्यों व्यतीत की । यों किसी तरह वह रात बिता कर तुम जल्दी-जल्दी मेरे पास आये हो । क्यों, मेघकुमार ऐसा ही हुआ न ?” मेघकुमार बोला – “भगवन् ! आप जैसा कहते हैं, वैसा ही हुआ । " पूर्व मव : गजराज सुमेरुप्रभ इस पर भगवान् ने कहा - " मेघ ! इस जन्म से पूर्वगत तीसरे भव में वैताढ्य पर्वत की तलहटी में तुम एक गजराज थे । वनचरों द्वारा तुम्हारा नाम सुमेरुप्रभ रखा गया था। तुम अपने सुमेरुप्रभ नाम के अनुरूप शंख के चूर्ण के समान निर्मल, दही के समान, के भाग के समान, चन्द्र, जलकण, तथा रजत के समान उज्ज्वल, गाय के थे दूध धवल 1 तुम्हारे सब अंग सुगठित, संतुलित और समुचित थे। हाथी के रूप में हे मेघ ! तुम वहां बहुत-सी हथिनियों और छोटे-छोटे हस्ति शावक शाविकाओं से घिरे रहते हुए उनका आधिपत्य करते हुए, उनका लालन-पालन करते हुए निवास करते थे । हे मेघ ! तुम बड़े मस्त थे, क्रीड़ामग्न थे । भोग- प्रिय थे । पर्वत शिखरों पर, तलहटियों में, बन खण्डों में नदियों के समीपवर्ती वन भागों में, वैसे ही अन्यान्य स्थानों में तुम विचरण - विहार करते थे। बहुत से हाथियों के साथ तुम युथपति के रूप में बड़े आनन्द के साथ घूमते थे । भयानक आग "एक बार की बात है, ग्रीष्म ऋतु का समय था । वृक्षों की पारस्परिक रगड़ से आग उत्पन्न हो गई । वृक्षों की सूखी पत्तियाँ तथा सूखे कूड़े-कर्कट से वह आग भयानक रूप में जल उठी । संयोगवश उस समय हवा भी जोर से चलने लगी, जिससे सारा जंगल धधक उठा । दिशाओं में सर्वत्र धूआं ही धूआँ हो गया । खोखले वृक्ष भीतर ही भीतर जलने लगे । हिरन आदि आग में जले हुए पशुओं के शव से नदी नालों का पानी सड़ने लगा । पशु-पक्षी बुरी तरह क्रन्दन करने लगे । पशु-पक्षी प्यास से पीड़ित होकर मुंह फाड़कर श्वांस लेने लगे । सारा पर्वत मानो व्याकुल हो उठा । "मेघकुमार ! जैसा मैंने कहा, तब तुम सुमेरुप्रभ हाथी के रूप में थे। तुम भी व्याकुल हो गये। बहुत से हाथियों, हथिनियों और बच्चों के साथ घबराहट से इधर-उधर दिशाओं - विदिशाओं में बुरी तरह दौड़ भाग करने लगे। तुम बहुत ही भूखे प्यासे, थके-माँदे थे । अपने झुंड से बिछुड़ गये । दावानल की ज्वालाओं से, गर्मी से, तृषा, क्षुधा से तुम अत्यन्त पीड़ित भयभीत और त्रस्त हो गये । तुम्हारा मुँह सूख गया । तुम अपने को बचाने के लिए इधर-उधर दौड़ने लगे। उसी समय तुम्हारी नजर एक सरोवर पर पड़ी, जिसमें पानी बहुत कम था । कीचड़ ही कीचड़ था । प्यास के मारे पानी पीने के लिए तुम उसमें बिना घाट के ही उतर गये। तुम पानी तक नहीं पहुँच सके और बीच में ही कीचड़ में फँस गये । मैं पानी पी लूं, ऐसा सोचकर तुमने अपनी सुंड फैलाई, किन्तु, वह पानी तक नहीं पहुंच सकी । तुमने कीचड़ से अपना शरीर बाहर निकालने के प्रयास में जोर मारा। उससे और ज्यादा कीचड़ में फंस गये । युवा हाथी द्वारा वंर स्मरणः दन्त-प्रहार : मृत्यु "एक युवा हाथी, जिसे तुमने कभी अपनी सूंड, पैर और दांतों से मारा था, पानी पीने हेतु उस सरोवर में उतरा। उस युवा हाथी ने ज्यों ही तुम्हें देखा, पहले का वैर उसे Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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