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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग --- बाघ का चमड़ा ओढ़े सियार : सीह० ६०ε दद्दर जातक बंसी कोकालिक एक समय की घटना है, भिक्षु संघ के मध्य बहुश्रुत भिक्षु सस्वर सूत्र- पाठ कर रहे थे। ऐसा प्रतीत होता था, मानो मनःशिला के नीचे युवा सिंह गर्जना कर रहे हों। उनकी स्वर-लहरी ऐसी लगती थी, मानो आकाश से गंगा उतर रही हो । कोकालिक नामक एक भिक्षु था । वह बहुश्रुत नहीं था, किन्तु, दंभवश अपने को बहुश्रुत मानता था । उसे अपने तुच्छ ज्ञान का भान नहीं था, इसलिए वह जहाँ भिक्षु पाठ करते, वहाँ स्वयं भी पाठ करने की आकांक्षा लिये चला जाता और संघ का नाम न लेता हुआ-संघ के प्रति आदर न दिखाता हुआ कहने लगता कि भिक्षु मुझे पाठ नहीं करने देते । यदि वे मुझे पाठ करने दें तो मैं चाहता हूँ, मैं भी पाठ करूं । और भी वह जहाँ कहीं जाता, यह बात कहता रहता । कोकालिक की परीक्षा : असफलता कोकालिक की यह बात भिक्षु संघ में फैल गई । भिक्षुओं ने विचार किया - अच्छा हो, कोकालिक की परीक्षा हो जाए । यह सोचकर उन्होंने उससे कहा - "आयुष्मन् काल ! आज भिक्षु संघ के समक्ष तुम सूत्र - पाठ करो ।” अभिमानवश कोकालिक ने अपना बल एवं सामर्थ्य नहीं पहचाना। उसने भिक्षुओं का अनुरोध मान लिया । वह बोलाआज भिक्षु संघ के समक्ष मैं पाठ करूंगा ।" कोकालिक ने अपनी रुचि के अनुरूप यवागू - चावलों के मांड का पान किया, भोजन किया, सून पान किया । सायंकाल - सूर्यास्त के समय भिक्षुओं को धर्म-श्रवण की सूचना हुई । भिक्षु संघ उपस्थित हुआ । कोकालिक ने कुरंड के पुष्प के समान काषाय-वस्त्र धारण किये, कनेर के फूल जैसा लाल रंग का चीवर ओढ़ा । वह भिक्षु संघ के बीच में गया । उसने स्थविरों को प्रणाम किया । वहाँ एक अलंकृत रत्नखचित मंडप था । उसके बीच में उत्तम आसन बिछा था । कोकालिक चित्रांकित पंखा हाथ में लिये पाठ करने हेतु ज्योंही आसन पर बैठा, उसकी देह से पसीना छूटने लगा । उसने पाठ करने का दुःसाहस तो किया, किन्तु, वह पहली गाथा एक चरण ही कह सका । उसके आगे वह कुछ भी नहीं बोल सका । भौंचक्का-सा रह गया । जो उसे स्मरण था, वह भी उसकी अन्तर्दु बलता के कारण विस्मृत हो गया । पहली गाथा के प्रथम चरण के आगे वह कुछ भी पाठ नहीं कर सका । वह काँपने लगा । आसन से नीचे उतर आया । अपनी असमर्थता और असफलता पर वह लज्जित हो गया । भिक्षु संघ के बीच से उठकर वह अपने परिवेण - आवास स्थान में चला गया। एक अन्य बहुश्रुत भिक्षु ने यथावत् रूप में सूत्र - पाठ किया । इस घटना से भिक्षु संघ को यह ज्ञात हो गया कि कोकालिक बहुश्रुत नहीं है, वह अज्ञानी है । एक दिन भिक्षु धर्म सभा में परस्पर चर्चा कर रहे थे कि कोकालिक के तुच्छ ज्ञान के सम्बन्ध में हमें कुछ ज्ञात नहीं था। उसने बोलकर स्वयं ही अपनी अज्ञता व्यक्त कर दी । शास्ता उधर पधारे । उन्होंने पूछा – “भिक्षुओ ! इस समय क्या वार्तालाप करते थे ?" भिक्षुओं ने अपने द्वारा कृत वार्तालाप का प्रसंग निवेदित किया । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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