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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : ३ देखा । उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने उससे यों भागने का कारण पूछा। उन्होंने बताया---- "एक विचित्र प्राणी भागा आ रहा है, पीछा कर रहा है। भागने के सिवाय उससे बचने का और कोई चारा नहीं है।" यों कहकर फिर से भागने लगे। सिंह अपने स्थान पर बैठा रहा। कुछ ही देर में वह घण्टीवाला सियार की घण्टी आवाज के साथ दौड़ता हुआ उधर से आ निकला। सिंह उसके नजनीक गया। उसे देखा। उसे झट पता लग गया, यह तो सियार है। उसने उसे झपट कर दबोच लिया और मृत्यु के मुख में पहुँचा दिया।' सीहचम्म जातक अज्ञ कोकालिक ___कोकालिक भिक्षु, जो बहुश्रुत नहीं था, अपने सामर्थ्य को नहीं जानता हुआ सस्वर सूत्र-पाठ करना चाहता था। भिक्षुओं ने परीक्षार्थ उसे वैसा करने का अवसर प्रदान किया। कोकालिक ने भिक्षु-संघ के मध्य पाठ करने का उपक्रम तो किया, पर, उसमें असफल रहा। अत: लज्जित होकर वहाँ से चला गया। इस प्रकार उसने स्वयं ही अपनी अज्ञता प्रकट कर दी। ऐसा होने पर एक बार भिक्षु परस्पर वार्तालाप करते थे कि देखो, कोकालिक की अज्ञता हमें ज्ञात नहीं थी, उसने संवय ही उसे प्रकट कर दिया। शास्ता उधर आये। उन्होंने भिक्षुओं से पूछा कि वे क्या बात कर रहे थे ? भिक्षुओं द्वारा उस सम्बन्ध में बताये जाने पर शास्ता ने कहा पूर्व जन्म में भी कोकालिक ने ऐसा ही किया था। बोधिसत्त्व का कृषक-कुल में जन्म शास्ता ने उसके पूर्व जन्म की कथा का यों आख्यान किया पूर्व कालीन प्रसग है, वाराणसी में राजा ब्रह्मदत्त राज्य करता था। तब बोधिसत्त्व का कृषक -कुल में जन्म हुआ। बड़े होने पर कृषि द्वारा अपनी आजीविका चलाने लगे। गर्दभ और सिंह-चर्म उस ससय एक वणिक् एक गर्दभ पर अपनी विक्रेय सामग्री लादे, व्यापारार्थ गांवगाँव घूमता था। वणिक् के पास सिंह-चर्म था । वह जहां भी जाता, गर्दभ की पीठ पर से अपना सामान उतार लेता। गर्दभ को सिंह-चर्म से आवृत कर-उसे सिंह का चमड़ा पहना कर धान और जौ के खेतों में चरने के लिए छोड़ देता। खेती की रक्षा करने वाले किसान जब उसे अपने खेतों में आया देखते तो उसे सिंह समझ कर डर के मारे उसे बाहर हांकने नहीं आते । गर्दभ मजे से यों खेतों में चरता रहता। एक दिन वह वणिक् घूमता-घामता एक ग्राम-द्वार पर आया। वहां ठहरा। गर्दम की पीठ पर से सामन उतारा । स्वयं अपना प्रातःकालीन भोजन पकाने की तैयारी करने लगा। उसने गर्दभ को सिंह-चर्म पहना दिया और पास ही एक जो के खेत में चरमे को १. आधार-वृहत्कल्प भाष्य ७२१-७२३ तथा वृति-पीठिका पृष्ठ २२१ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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