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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड:३
कारीगर ने उत्तर दिया---
"द्वीहि समण ! चक्खुसि विसालं वियं खायति । असम्पत्वा परं लिङ्ग मुजुभावाय कप्पति ।। एकञ्च चक्खं निग्गय्ह जिव्हमेकेन पेक्खतो। सम्पत्वा परमं लिङ्गं उजुभावाय कप्पति ।। विवादपत्तो उतियो केनेको विवदिस्सति।
तस्स ते सग्गकामस्स एकत्तमुपरोचतं ।' श्रमण ! दोनों नेत्रों से देखते हैं तो हमें विस्तीर्ण दिखाई पड़ता है। बाँस को सीधा करने के लिए उसके टेढ़े भाग का पता लगाना होता है। एक नेत्र को बन्द कर एक नेत्र से देखने पर बांस का टेढ़ापन स्पष्ट दिखाई पड़ता है। यों देखकर मैं बाँस को सीधा कर लेता हूँ। दो होने से विवाद उत्पन्न होता है । एक किससे विवाद करे। राजन् ! तुम स्वर्गाकांक्षी हो, तुम्हें एकाकी रहना रुचिकर हो । मैं यही कामना करता हूँ।"
राजा ने महारानी से कहा- "तुमने सुना, कारीगर क्या कहता है ? भद्रे ! दो होने से ऐसी ही स्थिति उत्पन्न होती है । यहाँ दो मार्ग हैं । इनमें से एक तुम ग्रहण करो, एक मैं ग्रहण करता हूँ। तुम भली-भांति समझ लो-अब न मैं तुम्हारा पति हूँ और न तुम मेरी पत्नी हो । हमारा अब कोई लौकिक सम्बन्ध नहीं है।"
अन्तत: जब महारानी ने देखा कि राजा किसी भी स्थिति में अब वापस नहीं लौटेगा तो वह अत्यन्त शोकान्वित हुई । वह उस अपरिसीम विषाद को सह नहीं सकी । दोनों हाथों से अपना वक्षस्थल पीटने लगी। मूच्छित होकर रास्ते में गिर पड़ी।
राजा ने जब देखा कि सीवळी मूच्छित हो गई है तो वह अपने पैरों के निशानों को मिटाता हुआ सघन वन में प्रविष्ट हो गया। मन्त्रियों ने रानी को होश में लाने हेतु उसकी देह पर जल छिड़का, उसके हाथों तथा पैरों को मला। रानी होश में आई। रानी ने मन्त्रि यों से पूछा-“महाराज कहाँ गये हैं ?"
मन्त्रियों ने कहा- देवी ! हम नहीं जानते।" रानी ने कहा-"उनकी खोज कराओ।"
रानी के आदेशानुसार परिचर महाराज को खोज करने इधर-उधर दौड़े, परन्तु, महाराज दिखाई नहीं दिये।
महाजनक ने वन में प्रविष्ट होने के पश्चात् ध्यान-साधना द्वारा एक सप्ताह के भीतर अभिज्ञा तथा समापत्तियों का लाभ किया।
महारानी सीवळी के लिए अब कोई उपाय नहीं था। उसने वापस लौटने का निश्चय किया। उसका जिन-जिन स्थानों पर महाराज के साथ वातालाप हुआ था, पुण्य स्मृति हेत उसने वहाँ-वहाँ चैत्यों का निर्माण करवाया। उनको सुगन्धित पदार्थों, पुष्प-मालाओं द्वारा अर्चना की। तत्पश्चात् वह सैन्य सहित मिथिला लौट आई। आमों के बगीचे में अपने पुत्र दीर्घायुकार का राज्यभिषेक किया। स्वयं शृषि-प्रव्रज्या स्वीकार की। वहीं उद्यान
१. गाथा १६६-१६८
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