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तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग–नमि राजर्षि : महाजनक जातक ६०१
अपनी मां के पास शयन करने वाली विभूषालंकृत कुमारिके ! तुम्हारे एक हाथ से आवाज नहीं होती, ऐसा क्यों?"
कुमारिका ने उत्तर दिया
"इमस्मि मे समण ! हत्थे पटिमुक्का दुनीधरा। संघाता जायते सहो दुतियस्सेव सा गति ।। इमस्मि मे समण हत्थे पटिमुक्को एकनीधरो। सो अदतियो न जनति मनि भतो न तिटठति ॥ विवादपत्तो दुतियो केनेको विवदिस्सति ।
तस्स से सग्गकामस्स एकत्तमुपरोचतं ॥'
श्रमण ! क्या नहीं देखते, मेरे एक हाथ में दो कंकण हैं। परस्पर संघर्षण से शब्द उत्पन्न होता है। दो का होना ही आवाज होने का हेतु है। मेरे दूसरे हाथ में केवल एक ही कंकण है। एकांकी कंकण ध्वनि नहीं करता, निःशब्द रहता है। दो का होना विवाद उत्पन्न करता है । एक का किससे विवाद हो । श्रमण ! तुम स्वर्गाकांक्षी हो, एकाकी रहना ही तुम्हें रुचिकर प्रतीत होता रहे, यही उत्तम है।"
उस नन्ही-सी बालिका की बात महाजनक ने सुनी। महारानी के समक्ष उसकी चर्चा करते हुए, उसने कहा-"कुमारिका द्वारा जो बात कही गई, वह तूने सुनी? यह वास्तविकता है। दो होने से ऐसी ही स्थिति होती है। देखती हो, यहाँ दो मार्ग हैं। एक से तू चली जा, एक से मैं चला जाऊं।"
महारानी ने कहा-- "अच्छा, स्वामिन् ! तुम जो कहते हो, वह उचित है। तुम दाहिनी ओर के मार्ग से चले जाओ, मैं बाईं ओर के मार्ग से जाती हूँ।"
महारानी ने बोधिसत्त्व को प्रणाम किया और उससे कुछ दूर जाकर खड़ी हो गई, किन्तु, वह मार्ग पर चल नहीं सकी। पति के वियोग-जनित शोक को सह पाने में उसने अपने को असमर्थ पाया। वह पुनः राजा के पीछे हो गई। उसके साथ-साथ एक गाँव में प्रविष्ट
बोधिसत्त्व भिक्षार्थ पर्यटन करते हुए एक कारीगर के द्वार पर पहुंचे, जो बाँसों को सीधे, सन्तुलित करने का काम करता था। महारानी भी उसके पीछे-पीछे चलती हुई एक तरफ खड़ी हो गई।
महाजनक ने देखा, वह कारीगर अंगीठी में बाँस को मर्म करता था, कांजी में भिगोता था। फिर एक आँख बन्द कर दूसरी आँख से उसे देखता हुआ सीधा करता था। बोधिसत्त्व ने उससे पूछा
"एवं नो साधु पस्ससि उसुकार ! सुणोहि मे।
यदेकं चक्खं निम्गय्ह जिव्हमेकेन पेक्खसि ॥ कारीगर ! क्या तुम्हें ऐसे-दोनों आँखों से देखने से ठीक नहीं दिखाई देता, जिससे तुम एक आंख को बन्द कर दूसरी से वाँस का टेढ़ापन देखते हो।"
१. गाथा १५९, १६० २. गाथा १६५
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